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________________ अन्तर्मुखी साधनापद्धति 43 और वह ऐसी संहार लीला करती है कि साक्षात् रौरव का दृश्य उपस्थित हो जाता है। दमन के साधकों की भी अन्त में एक दिन यही स्थिति हो सकती है। दमन का आधार अविवेक हैं, अज्ञान है । अतः उसमें उचित अनुचित का कुछ विचार नहीं होता है, केवल एक हठ होता है, जो अहं के केन्द्र पर खड़ा रहता है । दमन का साधक अधिकतर परम्परागत सामाजिक व्यवस्थाओं पर बल देता है और इन्हें ही साधना का अन्तिम आदर्श मान लेता है । और, . इस प्रकार दमन का साधक आसानी से धार्मिक एवं आध्यात्मिक होने की प्रसिद्धि पा लेता है, शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाता है । और जब ऐसा होता है तो वह फिर कुछ और अधिक अपनी घेराबन्दी शुरु करता है । अपने को पहले नंबर का और दूसरों को दूसरे तथा तीसरे नंबर का, या किसी भी नंबर का नहीं, प्रमाणित करने के लिए वह कठोर एवं विचित्र क्रियाकाण्डों की नयी-नयी उद्भावनाएँ करता है । और, इस प्रकार वह सिद्धि एवं प्रसिद्धि के फेर में पड़कर कहीं का भी नहीं रहता । धार्मिक जगत् में परस्पर निन्दा एवं आलोचना का जो अभद्र वातावरण रहता है, उसका क्या कारण है ? यही कारण है कि दमन के साधक को यश की भूख बहुत तीव्र हो जाती है, और इसके लिए वह दूसरों को यश के सिंहासन से नीचे गिराकर खुद उस पर बैठने को पागल हो जाता है। आमतौर पर • प्रसिद्धि को पाने या प्राप्त प्रसिद्धि को बनाये रखने के लिए एक ओर कठोर से कठोर, साथ ही जनसाधारण को चमत्कृत कर देने वाले क्रियाकाण्डों का पथ अपनाता है, तो दूसरी ओर अन्य साधकों एवं धार्मिकों के लिए निन्दा का वातावरण खड़ा करता है । वस्तुतः अशुभ वृत्तियों की निवृत्ति का दावा करने वाला यह दमन स्वयं ही एक अशुभ वृत्ति है । जो स्वयं अशुभ है, और केवल बाहर में शुभ का बाना पहन ले, तो क्या वह इतने भर से शुभ हो सकता है ? अशुभ को दूर कर सकता है ? काले कोयले को दूध से धोकर सफेद नहीं किया जा सकता । रावण को राम के वस्त्र पहना कर राम नहीं बनाया जा सकता है । अशुभ एवं विकृत वृत्तियों को भी केवल देहदण्डस्वरूप निर्जीव संयम का चोला पहनाकर विशुद्धता के रूप में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता । संयम के नाम से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
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