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________________ पर्यों का सन्देश मानव-जाति के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि आदि काल के अकर्म-युग से मनुष्य ने जब कर्म-युग में प्रवेश किया, तब उसके जीवन का लक्ष्य अपने पुरुषार्थ के आधार पर निर्धारित हुआ । जैन परम्परा और इतिहास के अनुसार उस मोड़ के पहले का युग एक ऐसा युग था, जब मनुष्य अपना प्रकृति के सहारे पर चला रहा था, उसे अपने आप पर भरोसा नहीं था, या यों कहें कि उसे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं हुआ । उसकी प्रत्येक आवश्यकता प्रकृति के हाथों पूरी होती थी, भूख प्यास की समस्या से लेकर बड़ी से बड़ी समस्याएँ प्रकृति के द्वारा हल होती थीं, इसीलिए वह प्रकृति की उपासना करने लगा । कल्प वृक्षों के निकट जाकर उनकी आरजू, मिन्नतें करता और उनसे प्राप्त सामग्रियों के आधार पर अपना जीवन निर्वाह करता । इस प्रकार आदि युग का मानव प्रकृति के हाथों में खेला था । उत्तर कालीन ग्रन्थों से पता चलता है कि उस युग के मानव की आवश्यकताएँ बहुत ही कम थीं । उस समय भी पति-पत्नी होते थे, पर उनमें परस्पर एक-दूसरे का सहारा पाने की आकांक्षा, उत्तरदायित्व की भावना नहीं थी । सभी अपनी अभिलाषाओं और अपनी आवश्यकताओं के सीमित दायरे में बँधे थे । एक प्रकार से वह युग उत्तरदायित्व-हीन एवं सामाजिक तथा पारिवारिक सीमाओं से मुक्त एक स्वतन्त्र जीवन था, कल्पवृक्षों के द्वारा तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी इसलिए किसी को भी उत्पादन श्रम एवं जिम्मेदारी की भावना से बांधा नहीं गया था, सभी अपने में मस्त थे, लीन थे । पर्यों की परम्परा _ अकर्म-भूमि की उस अवस्था में मनुष्य सागरों के सागर चलता गया । मानव की पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ बढ़ती गईं । किन्तु फिर भी उस जाति का विकास नहीं हुआ । उनके जीवन का क्रम विकसित नहीं हुआ, उनके जीवन में संघर्ष कम थे, लालसा और आकांक्षाएँ कम थीं । जीवन में भद्रता, सरलता का वातावरण था । कषाय की प्रकृतियाँ भी मंद थी, यद्यपि कषाय भाव की यह मन्दता ज्ञानपूर्वक नहीं थी, उनका स्वभाव, प्रकृति ही शान्त और शीतल थी । सुखी होते हुए भी उनके जीवन में ज्ञान व विवेक की कमी थी, वे सिर्फ शरीर के क्षुद्र घेरे में बंद थे । १४१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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