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________________ मैं सन् ६१ में कलकत्ता का वर्षावास समाप्त कर उत्कल प्रदेश में जगन्नाथपुरी तक गया था । पूज्य तपस्वी जगजीवनजी महाराज भी साथ थे। उड़ीसा की यात्रा धर्म प्रचार की दृष्टि से बड़ी सुखद रही। समुद्र देखने की मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा थी। सर्वप्रथम बालासर में, उसके बाद जगन्नाथपुरी और कोणार्क में समुद्र देखा। अतीव अद्भुत दृश्य ! शास्त्रों में समुद्र का वर्णन पड़ा था। पर, जब वह यथार्थ रूप में आंखों के सामने आया, तो पता चला कि वास्तव में समुद्र क्या है ? तट पर खड़े रहे, और देखते रहे । तट पर से जहाँ कहीं भी नजर इधर-उधर जाती थी, जल-ही-जल दिखाई देता था, किनारा कहीं नजर नहीं आता था। जिधर देखो उधर ही लाखों-करोड़ों लहरें जल पर नाच रही हैं। लगता था जैसे अपने लाखों लाख हाथ ऊपर उठाए समुद्र अपनी तरंग में, मस्ती में नाच रहा है। एक के बाद एक लहर दौड़ रही है। इस प्रकार लाखों लाख लहरें आकर समुद्र से टकराती है और विखर जाती हैं। गरज रहा है सागर । दिन को भी रात को भी। एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं। दिन हो या रात हो, सर्दी हो या गर्मी हो, उसके लिए सब बराबर हैं । मैंने सोचा, भगवान् को तीर्थकर को जो समुद्र की उपमा दी गई है, वह बिल्कुल ही ठीक है भगवान् वही है, जो क्षणभर के लिए भी धान्त नहीं होता है। ईश्वर का अर्थ भी यही है कि जो सृष्टि के निर्माण में हरक्षण संलग्न रहता है । सागर की तरह हरक्षण कर्म- तरंगों का नर्तन ही ईश्वरत्व है । तलैय्या सूख जाती है, पर सागर नहीं सूखता। सागर एक जीवन है। सागर की तरह जीवन हरक्षण कर्म की उछलती नाचती लहरों से लहराता रहना चाहिए। साहस के साथ, दृढ़ संकल्प के साथ सागर की तरह गर्जते रहो, कर्म क्षेत्र में लहरों की तरह नाचते रहो । आगे बढ़िए महकते बदरीवन में आचार्य भद्रबाहु स्वामी की एक रूपक कथा है। गाँव के बाहर एक कुबड़ी बेरी है। बेर खट्टे, काने, कीड़ों से भरे हुए गाँव के नादान बच्चे उसी कुबड़ी बेरी से चिपटे रहते हैं। दोचार बेरों के लिए आपस में झगड़ते हैं, मारपीट करते हैं। पत्थर मारने पर दो-चार बेर टूट कर ज्यों ही नीचे धूल में गिरते हैं, बच्चे दौड़कर वे खट्टे और काने बेर खाते हैं, बीमार पड़ते हैं। एक दिन एक साहसी किशोर ने कहा, "अरे यहाँ क्या करते हो ? चलो, दूर जंगल में वहां बहुत अच्छे बेरों का वन है। पक्के और मीठे अच्छे बेर खायेंगे । सब बालक बेरों के वन में जाते हैं और वहाँ सुगन्ध से महकते मादक पके बेर खूब जी भर कर खाते हैं। और वन से लौटते समय वे झोलियां भर-भर कर पर भी लाते हैं। दिल खोलकर गांव के बड़ों, बच्चों युवकों और महिलाओं को बाँटते हैं । मीठे बेर होने से सब तरफ "वाह - भाई- वाह" का जयघोष गूंज उठता है । यह 'वाह वाह' किस को मिलती है ? जो कर्म समर में साहस के साथ कूद पड़ते हैं, और विजय प्राप्त करके ही दम लेते हैं । जो लोग कोने में पड़े रहते हैं, मक्खी-मच्छरों की तरह भिनभिनाते रहते हैं, पड़े-पड़े उबासियाँ लेते रहते हैं, उनको कौन वाहवाही देता है, कौन उनके कीर्ति-गान गाता है, कीर्ति-गान जैसा क्या है उनके पास ? मैने बहुत से लोगों को देखा है। गाँव में पड़े हैं, न कोई धंधा, न कोई अन्य साधन बच्चे भूखे हैं, पत्नी भूखी है, बूढ़े माँ-बाप भूखे हैं । और ये सज्जन ऐसे हैं कि गाँव छोड़कर कहीं दूर बड़े नगर में जाने का साहस नहीं करते। सड़ा-गला जीवन गुजार रहे हैं। पर, कर्म के नये द्वार खोलने का नाम नहीं लेते। उनके ही अनेक साथी बाहर गए हैं, समुद्रों को लांघकर द्वीपान्तरों तक पहुँचे हैं। देखते-देखते धनकुबेर हो गये हैं। चारों ओर उनका यश है। और ये निकम्मे सोये पड़े हैं । आँख ही नहीं खुलती गृहशूरों की । आचार्य जिनवास गणी ने ऐसे ही अपने जाने-पहचाने गाँवों में चक्कर काटनेवाले भिक्षुओं को भी ग्रामपिण्डोलक कहा है। कुबड़ी बेरी के खट्टे और सड़े-गले फल खानेवाले आलसी बच्चों के साथ उनकी तुलना की है। गांव की रोटियों पर पड़े हैं। यह नहीं कि दूर-दूर तक के प्रदेशों में भ्रमण करें, साहस के साथ धर्म प्रचार के नये आयाम खोजें, नये द्वारों पर अलख जगाएँ। बस, वहीं बंधे-बंधायें परों में सुबह-शाम भिक्षापात्र घूम रहा है, और शुद्धाचार के पालन का अहंकार गर्ज रहा है। अन्यत्र नये प्रदेशों में इनका शुद्धाचार नहीं पल सकता। लगता है कल का तेजस्वी भिक्षु आज की दीन-हीन पंडागिरी पर उतर आया है। आचार्य जिनदास मजाकी प्रकृति के भी थे। अतः ऐसे ग्राम प्रतिबद्ध भिक्षुओं को उन्होंने ओदनमुण्ड के नाम से सम्बोधित किया है। ओदन २२२ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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