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________________ १३८४ गोकर्मकाण्डे अनंतरमोयनुभागबंधाध्यवसायप्रथमगुणहानिप्रथमनिषेकद मेले असंख्यातलोकमात्रचदिदं तद्गुणहानिचरमनिषेकपय्यंतमेकादृशमप्प चयदिदं पेच्र्युववेदु पेळ्दपरु : तत्तो कमेण वड्ढदि पडिभागेण य असंखलोगेण । अवरद्विदिस्स जेद्वद्विदिपरिणामो त्ति णियमेण ॥९६४॥ ततः क्रमेण वर्द्धन्ते प्रतिभागेन चासंख्यलोकेनावरस्थितेज्येष्ठस्थितिपरिणामपयंत नियमेन ॥ ततः आ जघन्यस्थितिजघन्यपरिणामप्रतिबद्धानुभागबंधाध्यवसायंगळतणिदं जघन्यस्थिति. द्वितीयादिपरिणामप्रतिबंधाघ्यवसायंगळुमसंख्यातलोकमात्रप्रतिभादिदं पुट्टिद विशेषदि निरंतरं पेच्चुत्तं पोपुर्वन्नेवरं जघन्यस्थितिप्रतिबद्धकषायपरिणामंगळोळ प्रथमगुणहानिचरमपरिणाममन्न__वरं अल्लिदं मेले गुणहानि गुणहानि प्रतियादियं नोडलादिद्विगुणमक्कुं। विशेषमं नोडलु विशेष, १० द्विगुणमक्कु-। मितु द्वितीयस्थितिमोदल्गोंडुत्कृष्टस्थितिपय्यंतमिई स्थितिबंधकारणजघन्योत्कृष्ट ११ १० = =ज 101 उ अनुज ०ज -०।०।०॥ ०1०1०1०।ज जज० ० ० 14००० 4.०० 55 ० ०० 155००० ०००44 .. ० " परिणामप्रतिबद्धानुभागबंधाध्यवसायंगळ रचनाविशेषमरियल्पडुगु-। मनुभागबंधाध्यवसायंगळगे नानागुणहानिशलाकेगळु उंदु इल्ल येदितुपदेशद्वयमुटु । अदं सर्वज्ञररिवरु । ततो जघन्यस्थितिजघन्यपरिणामप्रतिबद्धानुभागबन्धाध्यवसायेभ्यस्तद्वितीयादिपरिणामप्रतिबद्धानुभागबन्धाध्यवसायाः प्रथमगुणहानिचरमपरिणामपर्यता असंख्यातलोकमात्रप्रतिभागोत्पन्नविशेषेण निरन्तरं वर्द्धमाना १५ गच्छन्ति । ततोऽग्रे गुणहानि गुणहानि प्रति आदित आदिविशेषतो विशेषश्च द्विगुणो द्विगुणः । एवं द्वितीयादिस्थितावत्कृष्टस्थितिपयंतायामपि ज्ञातव्य । अनुभागबन्धाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाकाः तत्पश्चात् जघन्य स्थितिके जघन्य परिणाम सम्बन्धी प्रथम निषेकरूप अनुभागाध्यवसायस्थानोंसे उस जघन्य स्थितिके द्वितीयादि परिणामसम्बन्धी द्वितीयादि निषेकरूप अनुभागाध्यवसाय स्थान प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकरूप अन्तिम परिणाम पर्यन्त एक२० एक चय प्रमाण निरन्तर वृद्धिको लिये होते हैं। यहाँ असंख्यात लोक मात्र प्रमाण प्रतिभाग सर्वद्रव्यमें देनेसे चयका प्रमाण होता है। उससे आगे प्रत्येक गुणहानिमें प्रथम निषेकसे प्रथम निषेक तथा चयसे चयका प्रमाण दूना-दूना होता है। इसी प्रकार द्वितीयादि स्थिति योग्य द्वितीयादि निषेकोंमें भी उत्कृष्ट स्थिति रूप अन्तिम निषेक पर्यन्त रचना जानना । यहाँ जघन्य स्थितिसम्बन्धी जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानों में प्रथम निषेक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय २५ स्थान होते हैं । उसीके दूसरे स्थानमें द्वितीय निषेक प्रमाण होते हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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