SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ११२९ समप्रत्ययस्थानत्रयमक्कुं प्रमत्त ५।६।७॥ अप्रमत्त ५। ६ । ७ ।। अपूर्वकरणंगे ५।६।७॥ अनिवृत्तिकरणनोळु द्वित्रिद्विप्रत्ययस्थानमुं त्रिप्रत्ययस्थानमुमक्कुं। अनिवृत्ति २।३ ।। सूक्ष्मसाम्परायंग द्विकं द्विप्रत्ययस्थानमक्कुं। सू२॥ उपशान्तकषायंगे एक एकप्रत्ययस्थानमक्कुं। उपशान्तक १॥ क्षीणकषायंगे एक एकप्रत्ययस्थानमक्कुं। क्षी १॥ सयोगकेवलिगळ्गे अत एकमें दितेकप्रत्ययस्थानमक्कुं। स १ ॥ अयोगिकेवलिगळगे प्रत्ययं शून्यमक्कुं। अ० ॥ इंतुं गुण. ५ स्थानदोळु जघन्यादिस्थानंगळु पेळळ्पटुविवक्के स्थानव्यपदेशमतादुर्दे दोडे कस्य जीवस्यैकस्मिन्समये सम्भवप्रत्ययसमूहः स्थानमें दितक्कुमनन्तरं स्थानप्रकारंगळं पेळ्दपरु एक्कं च तिण्णि पंच य हेढुवरीदो दु मज्झिमे छक्कं । मिच्छे ठाणपयारा इगिदुगमिदरेसु तिण्णि देसोत्ति ॥७९३।। एकश्च त्रयः पंच च अधउपरितस्तु मध्यमे षट्कं । मिथ्यादृष्टौ स्थानप्रकारा एकद्विकमितरेषु १० त्रयो देशसंयतपयंतं ॥ मिथ्यादृष्टौ मिथ्यादृष्टियोळ अब उपरितः जघन्यं मोदलागि केळगणिंदमुमुत्कृष्टं मोवलागि मेगणिदमुं स्थानप्रकाराः स्थानभेदंगळु मदिधमेक त्रिपच प्रमितंगळप्पुवु । मध्यमे शेषमध्यमंगळोळेळं षट् षट् स्थानभेदंगळप्पुवु तु मर्त इतरसासादनादि देशसंपतपय॑तमान गुणस्थानंगळोळ स्थानप्रकाररंगळुमध १५ उपरितः जघन्यदत्तणिदमुमुत्कृष्टवत्तणिवमुमेकद्विकंगळु मध्यमवोळ त्रिभेदंगळुमप्पुवु । संदृष्टि ॥ चतुर्दशकं उत्कृष्टं । प्रमत्तादित्रये प्रत्येकं पंचकसप्तकानि । अनिवृत्तिकरणे द्विकत्रिके । सूक्ष्मसाम्पराये द्विकं । उपशान्तकषायादित्रये एककं । अयोगे शून्यं ॥७९२॥ अथ स्थानप्रकारानाह मिथ्यादृष्टेः स्यानेष्वधस्तनानि दशककादशकद्वादशकानि त्रीणि उपरितनान्यष्टादशकसप्तदशकषोडशकानि त्रीणि च क्रमेण एकत्रिपंच भवन्ति । मध्यमानि त्रयोदशकचतुर्दशकपंचदशकानि षड् भवन्ति । सासादनादि- २० देशसंयतांतानां अघस्तनानि प्रथमद्वितीयानि उपरितनानि चरमद्विचरमाणि चैकद्विप्रकाराणि । मध्यमानि __ २५ हैं । प्रमत्त आदि तीनमें-से प्रत्येकमें जघन्य पाँच, मध्यम छह, उत्कृष्ट सात हैं। अनिवृत्तिकरणमें जघन्य दो। मध्यम नहीं है। उत्कृष्ट तीन है। सुक्ष्म साम्परायमें जघन्य आदि भेद बिना दोका एक ही स्थान है। उपशान्त कषाय आदिमें जघन्य आदि भेदके बिना एकका एक ही स्थान है । अयोगीमें शून्य है ।।७९२॥ इन स्थानोंके प्रकार कहते हैं मिध्यादृष्टिमें कई स्थानोंमें-से नीचेके दस, ग्यारह, बारह तीन स्थान, और ऊपरके अठारह, सतरह, सोलह, तीन स्थान, इनमें क्रमसे एक तीन पाँच प्रकार हैं। अर्थात् दस और अठारह के स्थान तो एक-एक प्रकारके ही हैं। ग्यारह और सतरह के स्थान तीन-तीन प्रकारके हैं। बारह और सोलहके स्थान पाँच-पाँच प्रकारके हैं। मध्यके तेरह, चौदह, पन्द्रहके स्थान ३० छह-छह प्रकारके हैं । सासादनसे देशसंयत पर्यन्त नीचेके पहला और दूसरा स्थान तथा ऊपरका अन्तका व अन्तसे नीचेका स्थान एक और दो प्रकार हैं। अर्थात् पहला और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy