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________________ १० ६७४ कर्म्मणां संबंधो बंध उत्कर्षणं भवेवृद्धिः । संक्रमोऽन्यत्रगतिर्हानिरपकर्षणं नाम ॥ आउदो जीवक्के मिथ्यात्वादिपरिणामंगळवमा उदोंदु पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिकर्म्म५ स्वरूपदिदं परिणमिसुगुमदु मत्ताजीवक्के ज्ञानाविगळं मरसुगुर्म वित्यादिसंबंधं बंधमें बुदक्कु । कम्मंगळ स्थित्यनुभागंगळ वृद्धियुत्कर्षण में बुदक्कु । परप्रकृतिस्वरूपपरिणमनं संक्रम में बुदु । स्थित्यनुभागंगळ हानि अपकर्षण में बुदक्कु ॥ १५ गो० कर्मकाण्डे कम्मार्ण संबंधो बंधो उक्कड्ढणं हवे वड्ढी । संकमण्णत्थगदी हाणी ओकड्ढणं णाम ||४३८|| संछुहणमुदीरणा हु अत्थित्तं । सत्तं सकालपत्तं उदओ होदिति णिद्दिट्ठो || ४३९ ॥ अन्यत्र स्थितस्योदये निक्षेपणमुदीरणं खलु अस्तित्वं । सत्त्वं स्वकालप्राप्तमुदयो भवतीति निर्दिष्टं ॥ उदयावलिबाह्यस्थितद्रव्यक्क पकर्षण दर्शादिव मुदयावलियो निक्षेपणमुदीरणर्म बुदक्कु । मस्तित्वमं सत्वर्भ बुदु । स्वस्थितियनेय्वल्पटट्टुवुदयमे व पेळपट्टुवु ॥ उदये संकमुदये चउसुवि दादु कमेण णो सक्कंं । उवसंतं च णिधत्ती णिकाचिदं होदि जं कम्मं ॥ ४४० ॥ उदये संक्रमोदये चतुर्ष्वपि दातुं क्रमेण नो शक्यं । उपशांतं च निघत्ति निकाचितं भवति यत्कर्म ॥ मिथ्यात्वादिपरिणामेर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञानावरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबंधबंध: । स्थित्यनुभागयोर्वृद्धिः उत्कर्षणं । परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणं । स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणं २० नाम ॥ ४३८॥ उदयावलिबाह्यस्थित स्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु, अस्तित्वं सत्त्वं, स्वस्थिति प्राप्तमुदयो भवतीति निर्दिष्टः ॥ ४३९॥ मिथ्यात्व आदि परिणामोंसे जो पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिरूप परिणमता है और ज्ञानादिको ढाँकता है उसका सम्बन्ध होना बन्ध है । जो स्थिति अनुभाग पूर्व में था उसमें २५ वृद्धि होना उत्कर्षण है । जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उस प्रकृतिके परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप होना संक्रमण है । जो स्थिति अनुभाग पूर्व में था उसमें हानि होना अपकर्षण है || ४३८ || उदयावली के बाहर स्थित द्रव्यको अपकर्षणके द्वारा उदद्यावलीमें लाना उदीरणा है । अर्थात् जिन प्रकृतियोंके निषेकका उदयकाल नहीं है, उनकी स्थितिको घटाकर, जो निषेक आली मात्र कालमें उदयमें आते हैं उनमें उनके परमाणुओंको मिलाना, जिससे उनके ३० साथ ही उनका भी उदय हो वह उदीरणा है । अस्तित्वको अर्थात् पुद्गलोंका कर्मरूपसे रहना सत्त्व है। कर्मों की जितनी स्थिति है उस स्थितिका पूरा होना उदय है ।। ४३९ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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