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________________ १०५२ गो० कर्मकाण्डे स्थानोदयं क्षेत्रविपाकितिर्यग्मनुष्यानुपूर्योदययुतस्थानमप्पुरिदं विग्रहगतियोळल्लदल्लिघुमुदयमिल्ला विग्रहगतियोळ प्रथमसमयदोळु वत्तिसुत्तिर्पनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायकार्यकुपादानकारणभूतनारकतिर्यग्मनुष्यदेवाहारकचरमसमयपर्यायमदु द्रव्याथिकनयदिदमा चरमसमयदोळुटु । पर्यायाथिकनयदिदमनंतरसमयदोळेयनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायोत्पत्तिस्पादिदं क्षयमाद्दु । अदुकारणदिदं कारणक्के प्रध्वंसाभावमुं कार्यक्के प्रागभावमुमोडंबउल्पद्रुदंते पेळल्पटुदु॥ कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमाल्लक्षणात पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥५८-आ. मी. । कार्योत्पत्तिये बुडुपादानकारणक्षयमेयककुं नियमदिदमंतादोडा कारणकाय्यंगळगे पृथग्भाव१० में तेंदोडे लक्षदिंदमकुं। जातिद्रव्यगुणस्थानदिदमेकत्वमुंटागुतं विरलु तौ न भवतः कारणकायंगळे बुदिल्लदु कारणविदं कारणकायंगल्गनपेक्षेये बुद्ध गगनकुसुमोपममक्कुं नारकादिनोकाहारकचरमपर्यायक्षयदोळमनाहारकत्रसस्थावरतिय्यरमनुष्यपायदोळं द्रव्यगुणच्युति पक्षयैककमेव । तत्रकविंशतिकमुदयस्मानं क्षेत्रविपाकितिर्यग्मनुष्यानुभूळयुतत्वात् विग्रहगतावेवोदेति । तत्प्रथम समयवर्त्यनाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायकार्यस्योपादानकारणभूतो नारकतिर्यग्मनुष्यदेवाहारकचरमसमय१५ पर्यायो द्रव्याथिकनयेन तच्चरमसमये स्यात् । पर्यायाथिकनयेनानंतरसमये स एवानाहारकत्रसस्थावरतिर्यग्मनुष्यपर्यायोत्पत्तिरूपेण क्षीणस्ततः कारणात कारणस्य प्रध्वंसाभाव एवं कार्यस्य प्रागभावः । तथैवोक्तं कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ।।५८॥ या. मी. कार्योत्पत्तिः उपादानकारणक्षय एवं स्यान्नियमेन । तहि तयोः पृथग्भावः कथं स्यात् ? लक्षणात्स्यात् । २० जातिद्रव्यगुणाद्यवस्थानेनैकत्वे कारणकार्ये न स्यातामिति कारणात्तदनपेक्षा गगनकुसुमोपमा स्यात् । नारका स्थावर और मनुष्य ही उनको बाँधते हैं। तेईसके बन्ध कालमें भी नाना जीवोंकी अपेक्षा नौ उदयस्थान और पाँच सत्त्वस्थान सम्भव होते हैं। एक जीवकी अपेक्षा तो एक-एक ही होता है। उनमेंसे इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान क्षेत्रविपाकी तिर्यगानुपूर्वी या मनुष्यानुपूर्वी सहित होनेसे विग्रहगतिमें ही होता है। विग्रहगतिके प्रथम समयवर्ती अनाहारक त्रस २५ स्थावर, तियंच और मनुष्य पर्याय रूप कार्यका उपादानकारणभत नारक. तिथंच. मनुष्य या देव आहारककी चरम समयवर्ती पर्याय है। वह पर्याय द्रव्यार्थिकनयसे उसके चरम समयमें होती है। पर्यायार्थिकनयसे अनन्तर समयमें वही अनाहारक त्रस, स्थावर, तियंच या मनुष्य पर्यायकी उत्पत्ति रूपसे क्षयको प्राप्त हुआ। अतः कारणका प्रध्वंसाभाव ही कार्यको प्रागभाव है। कहा भी है 'उपादानका पूर्व आकाररूपसे क्षय ही कार्यका उत्पाद है अर्थात् मिट्टीको पिण्डपर्याय. का विनाश घटका उत्पाद है, दोनोंका एक ही कारण है। जो घटकी उत्पत्तिका कारण है वही मिट्टीकी पिण्डपर्यायके विनाशका कारण है। फिर भी लक्षणके भेदसे दोनोंमें भेद है। सामान्यरूपसे दोनों भिन्न नहीं हैं। निरपेक्ष माननेपर उनका सत्त्व नहीं हो सकता।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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