SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गो० कर्मकाण्डे सम्मविवेल्ले पंचैव य तत्थ होंति संकमणा । संजणतिए पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य ||४२४|| सम्यक्त्वविहोनोवेल्लनप्रकृतिषु पंचैव च तत्र भवंति संक्रमणानि । संज्वलनत्रये पुरुषे अधाप्रवृत्तश्च सर्व्वश्च । सम्यक्त्व प्रकृतिरहित द्वादशो द्वेल्लनप्रकृतिगळोळु उद्वेल्लनप्रकृतिषळ५ पुर्दारदमुद्वेलन गुणसंक्रमण सर्व्वसंक्रमणहारत्रयं सिद्धमक्कुं । बंधे अधापवत्तो एंवितु स्वस्वबंधव्युच्छित्तिपर्यंत मधः प्रवृत्तभागहारं सिद्धमकुं । विज्झादस्सत्तमोत्ति हु अबद्धे एंवितु विद्यातमुं सिद्धमपुरिदं भागहार पंचकं सिद्ध मक्कु । संदृष्टि :-- अ | मि | सु | ना | उ | म | कूडि २ | १ | ३ | ४ | १ | २ | १२ ५ ६६६ संज्वलनक्रोधमानमायापुरुषवेदंगळे व नालकरोल अथाप्रवृत्त सर्व्वसंक्रमणद्वयमक्कुमल्लि संज्वलनत्रयनवकबंधक्के बंधरहितत्वदोळ गुणसंक्रमण प्राप्ति यिल्लेके बोर्ड सूत्रोक्तहारद्वयनियम१० मंटप्युदरिदं संदृष्टि : ---- संक | पुं | कूडि ३ ४ | २ ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तो य । इस्सरदिभयजुगुच्छे अधापवत्तो गुणो सव्वो ||४२५ ॥ औदारिकद्विके व तीर्थे विध्याताथाप्रवृत्तौ च । हास्यरतिभयजुगुप्सास्त्रथाप्रवृत्तो गुणः सव्र्वः ॥ १५ विष्यातवर्जितानि चत्वारि ॥४२३॥ सम्यक्त्वं विना द्वादशोद्वेल्लनप्रकृतिषु पंचैव संक्रमणानि भवंति । संज्वलनक्रोधमानमाया पुंवेदेष्वधःप्रवृत्तः सर्वसंक्रमणं च । न चैषां बंधव्युच्छित्तो गुणसंक्रमणप्राप्तिः सूत्रे हारद्वयस्यैव नियमात् ॥४२४॥ दारिकद्विके वज्रवृषभनाराचे तोर्थे च विध्यातोऽधः प्रवृत्तश्च । तेषु प्रशस्तत्त्राद् गुणसंक्रमणं नास्ति । तीर्थस्य नारकाभिमुखे नारकापर्याप्ते च मिथ्यादृष्टौ विध्यातोऽस्ति । हास्यरतिभय जुगुप्सास्वधः प्रवृत्तसंक्रमणं २० गुणसंक्रमणं सर्वसंक्रमणं च ॥४२५ ॥ प्रवृत्त और गुणसंक्रमण होते हैं। मिध्यात्व में विध्यात गुण और सर्व संक्रमण होते हैं । सम्यक्त्व प्रकृति में विध्यात के बिना चार संक्रमण होते हैं ।।४१९-४२३॥ सम्यक्त्व मोहनीयके बिना बारह उद्वेलन प्रकृतियों में पाँचों संक्रमण होते हैं। संज्वलन क्रोध मान माया और पुरुषवेद में अधःप्रवृत्त और सर्वसंक्रमण होते हैं । इन प्रकृतियोंमें २५ बन्धव्युच्छित्ति के होनेपर भी गुणसंक्रमण सम्भव नहीं, क्योंकि गाथामें दो ही संक्रमणका विधान किया है || ४२४|| औदारिक शरीर व अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच, और तीर्थंकर में विध्यात और अधःप्रवृत्त दो संक्रमण ही होते हैं। ये प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं इससे इनमें गुणसंक्रमण नहीं होता । किन्तु नरक अभिमुख मिध्यादृष्टि मनुष्यके तथा उसके मरकर नरक में उत्पन्न होनेपर ३० अपर्याप्त अवस्था में तीर्थंकर प्रकृति में विध्यात संक्रमण कहा है। हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इनमें अधःप्रवृत्त संक्रमण, गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण होते हैं ||४२५ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy