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________________ ८१६ गो० कर्मकाण्डे ये 'बिंतु पेळल्पडुत्तिरलु सर्त्त 'ब वाग्विज्ञान अनुप्रवृत्ति लिंगानुमितसत्ताधार भूतंगळ विशेषरहितदिल्लवर संग्रहमक्कुमंतं द्रव्यमेदितु नुडियल्पत्तिरलु द्रवति गच्छति तांस्तान्यपर्यायानिति द्रव्य में वितुपलक्षित जीवाजीवतद्भेदप्रभेदंगळ संग्रहमक्कु मंते घटयक्तुि नुडियल्पत्ति रलु घटबुद्धि अभिधानानुगमलिगानुमित सकलार्थसंग्रहमक्कुमी प्रकारमन्यमुं संग्रहनयविषयमक्कुं ॥ संग्रहनयदोळिषकल्पदृत्थंग विधिपूर्वकम व हरणं व्यवहार में वितु भवग्रहणं व्यवहारनयमक्कुं । विधिर्य बुदाउदे दोडं आउदो दु संग्रहनय गृहोतात्थं तवनुपूर्व्वंविदमे व्यवहारं प्रवत्तिसुगुTags बुक्कुं अदे ते दोर्ड पेळल्पडुगुं । सर्व्वसंग्रहदिदमाउदो दु सत्संग्रहिसल्पट्टुवुवुमनपेक्षितविशेषं संव्यवहारक्क योग्य मते दु यत्सत्तद्द्रव्यं गुणो वा ये वितु व्यवहारनयमनाश्रयिसल्पडुगुं । संग्रह नयविषयद्रयददमुं संग्रहाक्षिप्तजीवाजीव विशेषानपेक्षमप्पुदरिदं संव्यवहारं शक्य१० मते दु यद्द्रव्यं तज्जीवमजीवद्रव्यमे दितु व्यवहारनयमनाश्रयिसल्पडुगुं । मत्तमा जीवाजीवंगळेरडुं संग्रहाक्षिमंगळादोडं संव्यवहार योग्यंगळते दु प्रत्येकं देवनारकादियुं घटावियुं व्यवहारनयविदमाश्रयिस पडुगु- । मिती नयमन्नवरेगं वत्तिसुगुमेन्नेवरं पुर्नाव भागमिल्लं ॥ ५ पदार्थोंका ग्रहण होता है । तथा द्रव्य कहनेपर - जो उन उन पर्यायोंको द्रवति-प्राप्त करता है वह द्रव्य है. अत: उससे उपलक्षित जीव-अजीव और उसके भेद-प्रभेदोंका प्रहण होता है । १५ तथा घट कहनेपर घट बुद्धि और घट शब्दके अनुगम लिंगसे अनुमित सब पदार्थों का ग्रहण होता है। इसी प्रकार अन्य भी संग्रहनयका विषय होता है । संग्रहन के द्वारा संगृहीत पदार्थोंका विधिपूर्वक भेदं ग्रहण करना व्यवहारनय है । संप्रनय में जिस क्रमसे ग्रहण किया गया हो उसी क्रमसे भेद करना यह विधि है । जैसे सर्व संग्रहके द्वारा जिस सत्का ग्रहण किया है जबतक उसके भेद न किये जायें वह २० व्यवहारके योग्य नहीं होता है। अतः जो सत् है वह द्रव्य या गुण है ऐसा व्यवहार नयका आश्रय लिया जाता है । संग्रहनयके विषय द्रव्यसे भी जीव- अजीब भेदोंकी अपेक्षा किये बिना व्यवहार शक्य नहीं हैं, अतः जो द्रव्य है वह जीव अजीवके भेदसे दो प्रकारका है ऐसा व्यवहारनयका आश्रय लेना चाहिए । संग्रहसे आक्षिप्त जीव और अजीवसे भी व्यवहार नहीं चलता । प्रत्येकके भेद देव नारकी आदि और घट-पट आदिका आश्रय लेना होता है । २५ इस प्रकार यह नय तबतक चलता है जबतक भेदकी गुंजाइश नहीं रहती । सदित्युक्ते सन्तेति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रहः स्यात् । तथा द्रव्यमित्युक्ते द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यमित्युपलक्षितजीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां ग्रहणं स्यात् । तथा घट इत्युक्ते घटबुद्धयभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थं संग्रहः स्यात् । एवमन्योऽपि संग्रहनयविषयो भवेत् । संग्रहे निक्षिप्तार्थानां विधिपूर्वकमवहरणं भेदग्रहणं व्यवहारः । यः संग्रहनय गृहीतार्थस्तदनुपूर्वेणैद ३. व्यवहारः प्रवर्तते इति विधिः । स कथं ? उच्यते - सर्वसंग्रहेण यत्सत् संगृहीतं तदनपेक्षितविशेषाणां संव्यवहारायोग्यत्वात् यत्सत् तद् द्रव्यं गुणो वेति व्यवहारनय आधेयः । संग्रहनयविषयद्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तजीबाजीवविशेषानपेक्षत्वेन संव्यवहाराशक्यत्वात् यद् द्रव्यं तज्जीवोऽजीव इति व्यवहारमय आश्रयः । पुनः तो जीवाजीवी द्वावपि संग्रहाक्षिप्तौ तदापि संव्यवहारायोग्यो इति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिर्व्यवहारनयेनाश्रेयौ । इत्ययं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनविभागो न स्यात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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