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________________ ८०६ गो० कर्मकाण्डे व्युच्छित्तियागि पोदुदप्पुरिदं । असंयतसम्यग्दृष्टिनारकरनिबरु मनुष्यगतियुतमागि नविंशति. स्थानमं कटुवरु । केलंबरुग मोदल मूरु नरकंगळोळु मनुष्यगतिपर्याप्तदोडने तीर्थयुतमागि कटुवर दिदु मोदलाद योजनिक सुगममक्कुमें बुदर्थमदु कारणमागि यथा प्रवचनं तथा परमागम कोविदरिदं गुणस्थानविवयिंदमुमा नामकर्मबंधस्थानंगळु योजिसल्पडुवम्मिदं ग्रथगौरव५ भयदिदं योजिसल्पायु । अतः मुंदण तिर्यग्गतियोछु तिर्यग्जी बंगळ आदितनषट्स्थानंगळं कटुवरु । तिर्यग्गति । २३ । २५ । २६ । २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ यिलिल तिर्यग्गतियोगितर्यग्जीवं. गळु त्रयोविंशतिप्रकृतिस्थानमं स्थावरबादरापर्याप्त केंद्रिययुतमागियु स्थावरसूक्ष्मापर्याप्ततिर्यग्गत्येकेंद्रिययुतमागियु कटुवा । पंचविंशतिप्रकृतिस्थानमनेकेंद्रियबादरपर्याप्तयुतमागियु मत्तमेकेंद्रियसूक्ष्मपर्याप्तयुतमागियु त्रसापर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियपंचेंद्रियतिर्यग्गतियुत१० मागियु त्रसापर्याप्तमनुष्यगतियुतमागियु कटुवरु । षड्विंशतिप्रकृतिस्थानमं पृथ्वीकाय विशिष्टबादरैकेंद्रियातपनाम तिर्यग्गतियुतमागियु मत्त तेजोवायुसाधारणवनस्पतिरहितशेषै. केंद्रियबादरपर्याप्तोद्योततिर्यग्गतियुतमागियु कटुवरु । अष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमं त्रसपर्याप्त. नरकगतियुतमागियु कटुवर । सपर्याप्तदेवगतियतमागियु कटुवरु । नविंशति स्थानमं त्रसपर्याप्त द्वींद्रियत्रींद्रिय [चतुरिंद्रिय] पंचेद्रियतिय॑ग्गतियुतमागियु कटुवर । त्रिशत्प्रकृतिस्थानमं १५ तिर्यग्गतिद्वयोद्योतबंधस्य सासादने छेदात् । असंयता मनुष्यगतियुतं च नवविंशतिकं तत्केविदाद्यत्रिनरके मनुष्यगतिपर्याप्ततीर्थयुतं त्रिंशत्कं च । तिर्यग्गती आद्यान्येव षट् । तत्र त्रयोविंशतिक स्थावरबादरापर्यासकेंद्रिययुतं स्थावरसूक्ष्मापर्याप्ततिर्यग्गत्येकेंद्रिययुतं च । पंचविंशतिकमेकेंद्रियबादरपर्याप्तयुतमेकेंद्रियसूक्ष्मपर्याप्तयुतं, त्रसापर्याप्तद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रिययुतं असापर्याप्त मनुष्यगतियुतं च । षड्विंशतिकं पृथ्वीकायविशिष्ट बादरैकेंद्रियातपतिर्यग्गतियुतं तेजोवायुसाधारणोनद्रियं बादरापर्याप्तोद्योततियंग्गतियुतं च। अष्टाविंशतिक २० सपर्याप्सनरकगतियुतं पर्याप्तदेवगतियुतं च । नवविंशतिकं असपर्याप्तद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियतिर्यग्गतियुतं क्योंकि तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी और उद्योतके बन्धकी व्युच्छित्ति सासादनमें ही हो जाती है। असंयत सम्यग्दृष्टी नारकी मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध करते हैं। उनमें से आदिके तीन नरकोंमें कोई-कोई मनुष्यगति पर्याप्त तीर्थ कर सहित तीसका बन्ध करते हैं। तियंचगतिमें आदिके छह ही बन्धस्थान हैं। उनमें से तेईसका बन्धस्थान स्थावर २५ बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय सहित या स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त तियंचगति एकेन्द्रिय सहित बँधता है। पच्चीसका बन्धस्थान एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त सहित, या एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त सहित, या त्रस अपर्याप्त दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति सहित या त्रस अपर्याप्त मनुष्यगति सहित बँधता है। छब्बीसका बन्धस्थान पृथ्वीकाय विशिष्ट बादर एकेन्द्रिय आतप तियंचगति सहित या तेजकाय, वायुकाय साधारण बिना अन्य एकेन्द्रिय ३० बादर अपर्याप्त तियंचगति उद्योत सहित बँधता है। अठाईसका स्थान त्रसपर्याप्त नरकगति सहित या त्रस पर्याप्त देवगति सहित बँधता है। उनतीसका स्थान असपर्याप्त दो-इन्द्रिय, १. म मागियु देव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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