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________________ ५ ७९४ गो० कर्मकाण्डे सणिस्स मणुस्सस्स य ओघेक्कदरं तु मिच्छभंगा हु | छादालसयं अट्ठय विदिये बत्तीससयभंगा || ५३६ ॥ संज्ञिनो मनुष्यस्य च ओघे एकतरं तु मिथ्यादृष्टिभंगाः खलु । षट्चत्वारिंशच्छतमष्टौ च द्वितीये द्वात्रिंशच्छतभंगाः ॥ तिर्यग्गतिपर्याप्तयुत संज्ञिय येकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंध स्थानदोळ मुद्योतयुत त्रिशत्प्रकृतिबंध - स्थानदोळं मनुष्यगतिपर्याप्त युतैकान्नत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थान में बिवरो । २९ ॥ ३० ॥ २९ ॥ ओघे सामान्यषट्संस्थान षट्संहनन युग्म सप्तकंगळोळ एकतरं बंधमेति एकतरप्रकृतिबंधमदुगु मपुदरिदं षट्चत्वारिंशच्छतमष्टौ च अष्टाधिक षट्छताधिक चतुःसहस्रमित भंगंगळप्पु - ४६०८ । ववुं मिथ्यादृष्टिय भंगंगळवु । खलु स्फुटमागि । मि । ति । २९ । ३० । ४६०८ । ४६०८ । १० मिम । २९ यितु तिर्व्यग्गतिपर्य्याप्त पंचेंद्रिययुतसंज्ञिकम्मपददोळुद्योतरहित सहितैकान्नत्रि ४६०८ शत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं मनुष्यगतिपय्र्याप्तयुतैकान्नत्रिशत्प्रकृतिबंधस्थानदोळं अष्टोत्तरषट्छताधिकचतुःसहस्रप्रमितभरांगळप्पुववु । मिथ्यादृष्टियोळेयप्पु बुदत्थं । मनुष्यगतियुतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानं देवनारका संयतसम्यग्दृष्टिगळु तीर्त्ययुतमागि कट्टुव स्थानमप्पुर्दारद मिथ्यादृष्टिस्थानभंरांग - को पेल्पड | मुंदे संयतसम्यादृष्टियो पेदपरु १५ षड्विंशतिकं द्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तयुतैकान्नत्रिंशत्कं त्रिशतकानि चेति सर्वाण्यष्टाष्टभंगानीत्यर्थः ॥५३५॥ शेषतिर्यक्पंचेंद्रियपर्याप्तयुत संज्ञिकर्मपदे मनुष्यगतिपर्याप्तयुतमनुष्यकर्मपदे चैकान्नत्रिंशत्कत्रिशतकयोगान् वक्तुं गुणस्थानेषु विभजयति तिर्यग्गतिपर्याप्तयुत संज्ञिनः एकान्नत्रिंशत्कोद्योतयुत त्रिंशत्कयोः मनुष्यगतिपर्याप्तयुतैकान्नत्रिंशत्के च सामान्य षट्संस्थानषट्संहनन सतयुग्मेष्वेकत रबंध मेतीति तेषु खल्वष्टाग्रषट्चत्वारिंशच्छतानि भंगा भवंति । ते २० च मिथ्यादृष्टेरेव – मिति २९ ३० मि म २९ | मनुष्यगतियुतत्रिंशत्कं तु तीर्थयुतमसंयत देवनाराकाणामेव ४६०८४६०८ ४६०८ पर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान अथवा उद्योत सहित छब्बीसका स्थान, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित उनतीस और तीसका स्थान, इन सबमें आठआठ भंग होते हैं || ५३५।। शेष तिथंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित संज्ञी कर्मपद में और मनुष्यगति पर्याप्तयुत मनुष्य२५ कर्मपद में उनतीस और तीसके स्थानोंके भंग कहने के लिए गुणस्थानों में विभाग करते हैं तिर्यंचगति पर्याप्त सहित संज्ञीके उनतीसके स्थान में और उद्योत सहित तीसके स्थान में तथा मनुष्यगति पर्याप्त सहित उनतीसके स्थान में सामान्य छह संस्थान, छह संहनन और विहायोगति आदि सात युगलों में से एक-एकका ही बन्ध होता है । अतः छह संस्थान आदिमें से एक-एक के बदलनेसे पूर्वोक्त एक-एक स्थान में ६ x ६x२×२×२x२×२×२४ ३० २ = ४६०८ छियालीस सौ आठ भंग होते हैं। ये भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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