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________________ ७६२ गो० कर्मकाण्डे अट्ठ य सत्त य छक्क य चदु तिदुगेगाधिगाणि वीसाणि । तेरस बारेयारं पणादिएगूणयं सत्तं ॥५०८॥ अष्ट च सप्त च षट् च चतुस्त्रिद्वयेकाधिका विंशतिः। त्रयोदशद्वादशैकादश पंचायेकोनकं सत्वं ॥ ये टुर्मळुमूलं नाल्कु मूरुमेरडुमो दुमधिकमादविंशतिगळं त्रयोदशभु द्वादशमुं एकादशमुं पंचायेकोनमादुईं सत्वमक्कुं ॥ संदृष्टि। २८ । २७ । २६ । २४ । २३ । २२ । २१ । १३ । १२ । ११ । ५।४।३।२।१॥ यिल्लि दर्शनमोहनीयत्रयमुं ३। पंचविंशति चारित्रमोहनीयमु २५ मंतष्टाविंशति प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळु सम्यक्त्वप्रकृतियनुद्वेल्लनमं माडिदोडे सप्तविंशति प्रकृतिस्थानमक्कुमवरोळु सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृतियतुद्वेल्लनमं माडिवोर्ड ड्विशतिप्रकृतिसत्वस्थान१० मक्कुं मत्तमा इप्पतंटर स्थानदोळनंतानुबंधिचतुष्टयम विसंयोजनमं माडिदोर्ड चतुविशतिप्रकृति सत्वस्थानमक्कुमवरोळ मिथ्यात्वप्रकृतियं क्षपिसिदोडे त्रयोविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळु सम्यभिथ्यात्वप्रकृतियं अपिसिदोडे द्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमक्कुमवरो सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपिसिदोडकविंशतिप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ मध्यमाष्टकषायंगळं क्षपिसिदोर्ड त्रयोदश प्रकृतिस्थान भक्कुमवरोळ पंढवेदमनागलि स्त्रोवेदमनागलि क्षपिसिदोर्ड द्वादश प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ १५ स्त्रीवेदमनागलि षंढवेदमनागलि क्षपियिसिदोडेकादशप्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमवरोळ षण्णोकषा यंगळं क्षपियिसिदोर्ड पंचप्रकृतिस्थानमक्कुमवरोळ पुंवेदमं क्षपियिसिदोडे चतुःप्रकृतिसत्वस्थान अष्टसप्तषटचस्त्रिद्वयकाधिकविंशतयस्त्रयोदशद्वादशैकादशपंचायेकोनं च सत्त्वं स्यात । अत्र त्रिदर्शनमोहपंचविंशतिचारित्रमोहमष्टाविंशतिकं । तत्र सम्यक्त्वप्रकृताद्वेल्लितायां सप्तविंशतिकं । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे उद्वेल्लिते षड्विंशतिकं । पुनः अष्टाविंशतिकेऽनंतानुबंधिचतुष्के विसंयोजिते चविंशतिक । पुनः मिथ्यात्वे क्षपिते २० त्रयोविंशतिकं । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिक। पुनः सम्यक्त्वे क्षपिते एकविंशतिकं । पुनः मध्यम कषायाष्टके क्षपिते त्रयोदशकं । पुनः षंढे स्त्रीवेदे वा क्षपिते द्वादशकं । पुनः स्त्रीवेदे वा षंढे क्षपिते एकादशकं । आठ, सात, छह, चार, तीन, दो और एक अधिक बीस अर्थात् अठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस तथा तेरह, बारह, ग्यारह और पाँच आदि एक एक हीन प्रकृतिरूप सत्त्व स्थान हैं-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, २५ ३, २, १ । इन्हें कहते हैं तीन दर्शन मोह और पचीस चारित्रमोह ये अठाईस प्रकृतिरूप सत्त्व स्थान हैं। इनमें-से सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईस प्रकृतिरूप सत्त्व होता है । पुनः सम्यकमिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेपर छब्बीस प्रकृतिक सत्त्व होता है। पुनः अट्ठाईसमें-से अनन्तानबन्धीका विसंयोजन होनेपर चौबीस प्रकृति सत्त्व होता है। उनमें से मिध्यात्वका ३० क्षय होनेपर तेईस प्रकृतिक सत्त्व होता है। मिश्र मोहनीयका क्षय होनेपर बाईस प्रकृतिक सत्व होता है। सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय होनेपर इक्कीस प्रकतिक सत्त्व होता है। अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानरूप मध्यम कषायोंका क्षय होनेपर तेरह प्रकतिरूप सत्त्व होता है। स्त्रीवेद और नपुंसक वेदमें से एकका क्षय होनेपर बारह प्रकृतिरूप सत्त्व होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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