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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णवसयसत्तत्तरिहि ठाणवियप्पेहि मोहिदा जीवा । गदात्त रिस पडिवियप्पेहि णायव्वा ||४८९ ॥ नवशतसतसप्ततिभिः स्थानविकल्पै म्मोहिता जीवाः । एकचत्वारिंशदेकान्न' सप्ततिशतप्रकृतिविकल्पैर्ज्ञातव्याः ॥ अपुनरुक्तसर्व्वं मोहनीयोदयस्थान विकल्पंगळो भैमूरप्पत्तेळरिदं त्रिकालत्रिलोकोदरवत्तचराचर संसारि जीवंगळ मोहिसल्पटुववर प्रकृतिविकल्पंगळ, मारुसासिरको भैनूर नाल्वतों दरिंदमुं मोहिसल्पटुवु । संदृष्टि स्थान । ९७७ । प्रकृतिगळ, कूडि ६९४१ ॥ २४ अनंतरं मोहनीयोदयस्थानमुमनवर प्रकृतिगळ मं पेदपरु | १० ३५४ ८८ so ४२ २० ४ २४ २४ | २४ | २४ | २४ २४ ७३३ ५ o २४ lo गुणस्थानदोळ, पयोगयोगादिगळोळ. उदयद्वाणं पयडं सगसगउवजोगजोग आदीहिं । गुणवत्ता मेलविदे पदसंखा पयडिसंखा च || ४९०॥ उदयस्थानं प्रकृति स्वस्वोपयोगयोगादिभिर्गुणयित्वा मिलिते पदसंख्या प्रकृतिसंख्या च ॥ उदयस्थानं, पव्विल्लेसु वि मिळिदे अडचउ चत्तारि इत्यादिगाथासूत्रदि गुणस्थानोक्तोदयस्थानसंयेयुमं प्रकृतिं स्वस्वगुणस्थानसंबंधि कूटंगळ दशाद्यंकंगळ मेळनदोळाद प्रकृति संख्येयमं Jain Education International नवशतानि सप्तसप्तत्यग्राणि तत्प्रकृतयोऽमूः -- १० । ५४ । ८८ । ७० । ४२ । २० । ४ । मिलित्वा- १५ ऽष्टाशीतिद्विशतं चतुर्विंशत्या गुणयित्वा द्विप्रकृतिकस्य चतुर्विंशत्या एकप्रकृतित्रस्य पंचभिश्च युताः एकचत्वारिशदग्रे कोनसप्ततिशतानि । एतैः स्थानविकल्पैः प्रकृतिविकल्पैश्च त्रिकालत्रिलोकोदरवर्तिचरा व रसंसारिजीवाः मोहिताः संति ॥ ४८९ ।। अथ मोहोदयस्थानतत्प्रकृतीर्गुणस्थानेषूपयोगादीनाश्रित्याह 'पुब्विल्लेसुवि मिलिदे' इति सूत्रोक्तस्थानसंख्यां तत्प्रकृतिसंख्यां च संस्थाप्य स्वस्वगुणस्थाने संभव्यु 'पुव्विल्लेसुवि मिलिदे' इत्यादि गाथा में कही स्थानोंकी संख्या और उन स्थानोंकी १. एकचत्वारिंशदधिकान्येकोनसप्तति ६९ मितानि शतानि प्रकृतयः ॥ For Private & Personal Use Only ५ इस प्रकार नौ सौ सतहत्तर हुए। इनकी प्रकृतियाँ कहते हैं दसरूप एक स्थानकी दस प्रकृति । नौरूप छह स्थानोंकी चौवन प्रकृतियाँ । आठरूप ग्यारह स्थानोंकी अठासी । सातरूप दस स्थानोंकी सत्तर । छहरूप सात स्थानोंकी बयालीस । पाँचरूप चार स्थानोंकी बोस । चार रूप एक स्थानकी चार । ये सब मिलकर दो सौ अठासी हुईं। इनको चौबीस भंगसे गुणा करनेपर उनहत्तर सौ बारह हुए । उनमें दो प्रकृतिरूपके चौबीस भंग ( एक-एक के बारह-बारह ) और एक प्रकृतिरूपके पाँच मिलानेपर उनहत्तर सौ २५ इकतालीस भेद हुए । इन स्थानभेद और प्रकृतिभेदसे त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती चराचर संसारी जीव मोहित हैं || ४८९ || आगे मोहके उदयस्थान और उनकी प्रकृतियोंको गुणस्थानों में उपयोग आदिकी अपेक्षा कहते हैं १० २० ३० www.jainelibrary.org
SR No.001326
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages828
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Karma
File Size18 MB
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