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________________ यहाँ हम अधिक विस्तार में तो नहीं जाएंगे, किन्तु साधनाकाल में वे कितने अविचल महान् साधक रहे हैं-कुछ संकेत रूप में संक्षिप्त उल्लेख कर देना उपयुक्त समझते हैं। कल्पसूत्र में साधाना - काल से सम्बन्धित भगवान् महावीर के प्रति उपयुक्त अनेक उपमाओं की एक लम्बी श्रृंखला है। उसमें प्रायः सभी शब्द महावीर की अविचल दृढ़ता एवं धीरता का उद्घोष करते हैं कास्थ पात्र की तरह निलेव। जैसे कि कांस्य के पात्र पर जल-बिन्दु की आर्द्रता नहीं रहती है, उसी प्रकार भगवान महावीर की चेतना पर राग-द्वेष मूलक किसी भी अनुकूल - प्रतिकूल घटनाओं का कोई प्रभाव अर्थात् लेप नहीं रहता था। शंख के समान विरंजन ! जिस प्रकार शंख श्वेत होता है. उस पर कोई रंग नहीं होता, उसी प्रकार भगवान् भी निरंजन एवं निर्विकार रहे हैं। जीव के समान अप्रतिहत गति के धारक : जिस प्रकार आत्मा की गति का कोई अवरोधक नहीं हो सकता, उसी प्रकार भगवान महावीर भी अवरोध - मुक्त गतिशील रहे हैं। आकाश के समान निरवलम्ब : जिस प्रकार आकाश को स्थिर रहने के लिए किसी आधार की अपेक्षा नहीं है, उसी प्रकार महावीर भी किसी भी स्थिति में किसी भी सहायक एवं आधार की अपेक्षा नहीं रखते थे । वायु के समान अप्रतिबन्द : जैसे वायु को किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता नहीं है, वैसे महावीर अप्रितिबद्ध विहारी रहे हैं। शरद् ऋतु के जल के समान निर्मल, मल रहित विशुद्ध, कमलपत्र के समान निर्लिप्त, कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय, गेंडे के सुप्रसिद्ध एक शृंग के समान एकाकी अर्थात् अन्य किसी की सहायकता से मुक्त पक्षियों के समान स्वतन्त्र, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त रहे हैं। हाथी के समान शौण्डी अर्थात युद्ध में भयंकर वाण-वर्षा में भी शौर्य धारक । आगम - साहित्य में इसी भाव को 'संगामसीसे इव नागराया' जैसे वीरतापूर्ण शब्दों में अभिव्यक्त किया है । भगवान् भगवान् महावीर, महावीर क्यों है ? ! १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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