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________________ के लिए है। इनमें से किसी से भी सम्बन्धित नहीं है-जैनाचार। उसका एक मात्र हेतु है-अरहन्त होना । सूत्र का मूल पाठ हैं "नो इहलोगट्ठयाए आयारम हिट्ठज्जा, नो परलोगट्टयाए आयारमहिज्जा , नो कित्ति-वन्न-सद्द-सिलोगट्टयाए आयारमहिट्टज्जा, नन्नत्थ यारहंतेहिं हेउहिं आयारमहिट्टिज्जा ॥" उक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है-साधना का अन्तिम लक्ष्य अरहन्त है। अरहन्त होने के अनन्तर निर्वाण एवं सिद्धत्व प्राप्ति हेतु कोई साधना की हो, कहीं भी विदित नहीं है । निर्वाण तो अरहन्त होने पर समय पर स्वतः प्राप्त होनेवाला फल विशेष है। परिनिर्वाण देह से मुक्त होकर सदा - सर्वदा के लिए स्वयं का स्वयं में लीन हो जाना है। स्वयं एवं पर के लिए वहाँ कुछ भी करणीय जैसा नहीं रह जाता है । अतः मैं अन्य कल्याणकों को महत्त्व देता हुआ भी कह सकता हूँ--दीक्षा और केवलज्ञान (अर्हत)-दोनों कल्याणक साध्य - साधना - भाव से परस्पर सम्बन्धित हैं। दीक्षा कल्याणक साधना है और अर्हत् (केवलज्ञान) साध्य है। यह दीक्षा और केवलज्ञान, अन्य अर्हतों के भी पूज्य रूपेण मान्य हैं। किन्तु, कल्याणक के रूप में ये तीर्थंकरों के इसलिए सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त कर लेते हैं, कि तीर्थंकरों का अर्हत-भाव के साथ सर्वातिशायी पुण्य ऐसा होता है, जो विश्व-हित की दिशा में अनुपम है, अनुत्तर है, अद्वितीय है, उसकी तुलना कहीं अन्यत्र अन्य किसी से नहीं की जा सकती है। मैं इस पुण्यातिशय पर यथावकाश अन्य किसी लेख में प्रकाश डालना चाहता हूँ। साधक दीक्षा के द्वारा अर्हत् हो जाता है । एक रूप से वह जीवन-मुक्त सिद्ध हो जाता है। इसलिए लोगस्स सूत्र के उपसंहार में अरहंतों को सिद्ध पद से सम्बोधित करते हुए कहा गया है "चन्देसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागर - वर - गंभीरा, सिद्धासिद्धि मम दिसन्तु ॥" अनुयोग द्वार सूत्र में भी अरहंतों के लिए सिद्ध पद प्रयुक्त है। उक्त प्रसंग पर मैं एक बात और कहना चाहता हूँ। वह यह कि आज के युग में हम जैन 'जन्म और निर्माण' कल्याणक को तो १३८ चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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