SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर के केवलज्ञान प्राप्त कर जिनत्व की स्थिति पर पहंचने के हर्ष की ओर संकेत करते हैं । श्री केशीकुमार श्रमण कहते हैं अंधयारे तमे घोरे, चिट्ठति पाणिणो बहू । को करिस्सइ उज्जोयं ? सव्वलोगम्मि पाणिणं ।। उत्तराध्ययन, २३, ७५ गणधर गौतम झटपट हर्षोल्लास की भाषा में कहते हैं उग्गओ विमलो भाणू, सव्वलोगपभंकरो । सो करिस्सइ उज्जोयं, सव्वलोगम्मि पाणिणं ।। उग्गओ खीणसंसारो सम्वन्न जिणभक्खरो। सो करिस्सइ उज्जोयं, सब्वलोगम्मि पाणिणं ॥ वही ७६ और ७८ अर्थ के अधिक विस्तार में जाने की अपेक्षा नहीं है। गाथाओं पर से ही मेरा प्रतिपाद्य स्वतः स्पष्ट हो जाता है। यहाँ गणधर गौतम कितने आनन्द विभोर हैं। मैं मालम करना चाहता हैयह आनन्द भगवान् के निर्वाण के समय कहाँ चला गया था ? और क्यों चला गया था ? इसलिए चला गया था कि जो सातिशय प्रकाश अहंत - काल में मिलता था, वह अब निर्वाण होने पर नहीं मिलने वाला था। बस यही कारण है-गौतम के रुदन का। अतः स्पष्ट है कि निर्वाण तत्कालीन साधकों के लिए भी महोत्सव रूप नहीं, अपितु विषाद रूप था। सिद्धत्व साधक के लिए अजरामर रूप में उसकी अपनी व्यक्तिगत सिद्धि है, इसमें कोई दो मत नहों। किन्तु, जन - हित की दृष्टि से देखा जाए, तो लोक - प्रदीप, लोक - प्रद्योतकर तीर्थंकरों का निर्वाण अर्हत - स्थिति की भाँति "लोक - हिताय तथाच लोक-कल्याणाय" नहीं है। अब मैं अपने मूल प्रतिपाद्य विषय पर आता हूँ। बीच के दो कल्याणक हैं-दीक्षा एवं केवलज्ञान । भले ही कोई मुझ से सहमत हों, या न हों। किन्तु, मुझे अपने व्यक्तिगत चिन्तन में उक्त दो कल्याणक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिभाषित होते हैं। प्रतिभासित क्या महत्त्वपूर्ण हैं ही। दोक्षा आत्म - शुद्धि के हेतु साधना के पथ पर अग्रसर होना है। मात्र आत्म - शुद्धि ही नहीं, दीक्षा के साथ चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy