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________________ च्यवन - कल्याणक मुझे कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं लगता। पूर्व-जन्म की आयु क्षीण हुई और आत्मा पूर्व-बद्ध कर्मानुसार नया जन्म ग्रहण करने के लिए किसी विशेष स्थान, विशेष कुल एवं विशेष माता के यहाँ गर्भ में अवतरित हो गई। यह हुआ च्यवन कल्याणक । प्रश्न है-इस कल्याणक में क्या वैशिष्ट्य है । कर्म-योग से कहीं-न-कहीं जन्म लेना था, कहीं-न-कहीं अवतरित होना था और अवतरित हो गए। कितनी ही बार चिन्तन करने पर भी उक्त कल्याणक की महत्ता सम्बन्धी जिज्ञासा का मुझे कोई खास समाधान नहीं मिला। दूसरा कल्याणक है-जन्म । गर्भ में अवतरित हुआ है, तो आत्मा समय पर गर्भ से बाहर आता ही है, जन्म लेता ही है। यह तो एक प्राकृतिक घटना है। उक्त घटना क्रम में से, यदि कोई विघ्न, बाधा उपस्थित न हुई, तो सब को गुजरना ही होता है। यह ठीक है कि महापुरुषों का जन्म भविष्य के अनेक शुभ - संकेतों को लेकर प्रसन्नता का वातावरण प्रसारित करता है। फिर भी जन्म तो जन्म ही है। उसकी दिव्यता जन्म - काल के वर्तमान में नहीं, किन्तु महान् ज्योतिर्मय उज्ज्वल भविष्य में है। __पाँचवाँ कल्याणक निर्वाण है। जिसकी चर्चा मैं जान-बूझकर यहाँ पहले ही कर रहा हूँ। यह इसलिए कि उक्त घटना तीर्थंकरों के जीवन की अपनी एक व्यक्तिगत घटना है। और, यह केवल तीर्थंकरों के ही जीवन की घटना नहीं हैं, किन्तु प्रत्येक सर्वज्ञसर्वदर्शी, वीतराग, निरंजन, निर्विकार, अर्हद् अवस्था को प्राप्त आत्मा को प्राप्त होती है। जैन धर्म में साधक पूर्ण वीतराग होने पर सर्व प्रथम अर्हत होता है और तदनन्तर कुछ शेष रहे हुए भोग्य कर्मों का भोग भोगकर आयु समाप्त होने पर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। अर्हत होने के लिए तो वीतरागता की विशिष्ट साधना करनी होती है, किन्तु अर्हत होने के पश्चात् निर्वाण एवं सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए कोई विशिष्ट साधना नहीं करनी होती। मात्र अघाति कर्म, जो कि वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं, उन्हें भोग लेना होता है। ये कर्म नये कर्म के बन्ध रूप में आत्म स्वरूप के घातक नहीं होते हैं । भगवान् महावीर के संघ १३४ चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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