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________________ करते हुए कौरवों के यहाँ दूत बन कर जाते हैं। सभा में सब के समक्ष शान्ति का प्रस्ताव रखते हैं। समग्र साम्राज्य का प्रश्न छोड़ कर केवल पाँच गाँव तक की याचना करते हैं । फिर भी अहंकार एवं लोभ की पिशाच - भावना से ग्रस्त दुर्योधन कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं है। अतः श्री कृष्ण वापिस लौटते हुए पाण्डवों की माता सती - रत्न दिदुषो कुन्तीजी से मिलते हैं और पाण्डवों के लिए सन्देश देने के लिए कहते हैं । यह वह प्रसंग है, जो यथार्थ माँ के मातृत्व का प्रसंग है। कुन्ती श्री कृष्ण से कहती है-युधिष्ठिर से कहना, कि वह अपने क्षत्रिय कर्तव्य का सही-सही रूप अदा करे । क्षत्रिय पराश्रित होकर जीवन नहीं गुजारता है। ऐसा करना उसके लिए पाप है। वह अपनी भुजाओं से अजित सम्पत्ति का ही उपयोग करता है "बाहुभ्यां क्षत्रिया: सृष्टा, बाहुवीर्योपजीविनः ।" उद्योगपर्व १३२,७ -क्षत्रिय वही है, जो क्षत होती हुई प्रजा का त्राण करता है । "क्षत्रियोऽसि क्षतात त्राता, बाहुवीर्योपजीविता ।"-३१ अब वह समय आ गया है, कि वह अपने बाहुबल के द्वारा अपने खोये हुए ऐश्वर्य को पुनः प्राप्त करे। प्रजा-पालन रूप जो क्षत्रियों का वास्तविक धर्म है, उसका साहस के साथ पालन करे, उसे व्यर्थ न खोए। ___"भूयास्ते हीयते धर्मो मा पुत्रक वृथा कृथाः ।" । जो श्रोत्रिय ब्राह्मण वेद-मन्त्रों का कुछ भी अर्थ न जानते हुए केवल शब्दों की अनुवृत्ति करता रहता है, उसकी बुद्धि शब्द पाठ के रटन में ही नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार यदि तू केवल अर्थ हीन शांति पाठ करता है, तो वह क्षत्रियत्व को दृष्टि से तत्त्वहीन है। "श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याविपश्चितः । अनुवाकहता बुद्धिर्धर्ममेवैकमीक्षते ।।६।।" प्रस्तुत चर्चा में कुन्तीजी ने ज्योतिर्मयी वीर माता विदुला का एक महत्त्वपूर्ण उपाख्यान उपस्थित किया है। शौर्य एवं साहस का वह जीवंत उपाख्यान है। भारतीय इतिहास में प्रस्तुत उपाख्यान की महती प्रतिष्ठा है, जो विदुला को सहस्राधिक वर्षों से १२६ चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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