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________________ -राघव ! क्या तुम वृद्ध पुरुषों, बालकों और प्रधान वैद्यों का आन्तरिक अनुराग, मधुर वचन, और धन - दान-इन तीनों के द्वारा सम्मान करते हो न ? कच्चिद् गुरुंश्च वृद्धाश्च, तापसान् देवातातिथीन् । चैत्यांश्च सर्वान् सिद्धार्थान् ब्राह्मणांश्च नमस्यसि ॥६१॥ -गुरुजनों, वृद्धों, तपस्वियों, देवतात्माओं, अतिथियों, चैत्यों और समस्त शास्त्र वेत्ता ब्राह्मणों को नमस्कार करते हो न ? कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थ, धर्मेण वा पुनः । उभी वा प्रीतिलोभेन, कामेन न विबाधसे ।।६२॥ -तुम अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहँचाते हो ? अथवा आसक्ति और लोभरूप काम के द्वारा धर्म और अर्थ दोनों में बाधा तो नहीं आने देते हो न ? __ कच्चिदर्थ च कामं च, धर्म च जयतां वरं। विभज्य काले कालज्ञ, सर्वान् वरद सेवसे ॥६॥ ---विजय वीरों में श्रेष्ठ, समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता तथा दूसरों को वर देने में समर्थ भरत ! क्या तुम समय का विभाग करके धर्म, अर्थ और काम का योग्य समय में सेवन करते हो न ? कच्चित् ते सफलं श्रुतम् ॥७२॥ - क्या तुम्हारा शास्त्र ज्ञान भी विनय आदि गुणों का उत्पादक होकर सफल हुआ है न ? कच्चित् स्वादुकृतं, भोज्यमेको नाश्नासि राघव । कच्चिदाशं समानेभ्यो, मित्रेभ्य: सम्प्रयच्छसि ॥७॥ -रघु-नन्दन ! तुम स्वादिष्ट पकवान अकेले ही तो नहीं खा जाते हो ? उसकी आशा रखने वाले मित्रों को देते हो न ? महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के उक्त वर्णन के अनुरूप ही महर्षि व्यास कृत महाभारत के सभापर्व अध्याय में भी प्रायः यही वर्णन उपलब्ध है। द्य तक्रीड़ा के पूर्व हो दुर्योधन के दुरभिसंधि के कारण श्री युधिष्ठर आदि पाण्डु पुत्रों ने अपनी परम्परागत राजधानी हस्तिनापुर से निष्कासित होकर एक वन बहुल प्रदेश में इन्द्रप्रस्थ नाम ११० चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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