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________________ शत्रुओं के साथ युद्ध में संलग्न है । बाहर में रक्त की बूंद नहीं गिर रही है, परन्तु मन के रौद्र परिणामों से हजारों सैनिकों का भयंकर संहार हो रहा है । यह है तीव्र द्वेषभाव, प्रचण्ड क्रोध, जो सावद्य है और उसी का परिणाम है कि • बाहर में किसी तरह की सावद्य क्रिया न होते हुए भी सातवीं नरक के योग्य कर्म - पुद्गलों का आनव हो गया । आम्रव तो हो गया । पर, निकाचित बन्ध पड़ने के पूर्व ही जागृत हो गए और उस सावद्य-योग से पूर्णत: निवृत्त हो गए । चिन्तन की धारा आत्माभिमुखी हो गई । और, इस निवृत्ति का परिणाम है कि सम्राट श्रेणिक के प्रश्न पूछते-पूछते और श्रमण भगवान महावीर के उत्तर देते-देते ही राजर्षि प्रसन्नचन्द्र केवलज्ञानी हो गए । अस्तु, त्रि-करण, त्रि-योग से त्याग का अर्थ है - कषाय से अनुरंजित प्रवृत्ति का त्याग । यथार्थ में राग-द्वेष एवं कषाय वृत्ति ही सावद्य है और यह वृत्ति ही योगों को सावद्य बनाती है । अन्तर्मन में राग-द्वेष एवं कषायों की वृत्ति जितनी तीव्र होगी वैभाविक परिणति जितनी अधिक गहरी होगी, उतना ही मनोयोग अशुद्ध होगा और योगों की प्रवृत्ति भी अशुद्ध ही होगी और उमसे अशुभ कर्म - वर्गणा के पुद्गलों का बन्ध भी प्रगाढ होगा । अस्तु, बाह्य योग-प्रवृत्ति एवं बाह्य पदार्थों से योग- निवृत्ति स्वतः न तो शुद्ध है, न अशुद्ध है, न शुभ है और न अशुभ है । जब, मन वचन एवं काय-योग जड़ हैं, भौतिक पुद्गलों से बने हैं, तब वे स्वभाव से शुभाशुभ कैसे हो सकते हैं ? परिणामों की शुद्ध, अशुद्ध, शुभ और अशुभ पर्याय है और वह स्वभाव-विभाव की अपेक्षा से शुद्ध और अशुद्ध होती है । शुद्ध पर्याय आत्मा का स्वभाव है, उसमें बन्ध नहीं होता । बन्ध, अशुद्ध पर्याय विभाव रमणता में ही होता है और वह शुभ भी है और अशुभ भी । शुभ से पुण्य का बन्ध होता है और अशुभ से पाप का । पर, हैं दोनों ही मूल में बन्धन | अत: यथार्थ में कषाय के रंग से अनुरंजित परिणाम ही सावद्य हैं और उन सावद्य परिणामों से स्पर्शित योगों को भी व्यवहार में सावध कहा है । इसलिए यथासंभव सावद्य क्रिया से बचना श्रमण का कर्तव्य है । धर्म तो है कषायों से निवृत्त होकर अकषाय एवं वीतराग भाव में स्थित होना और यह अवस्था बाह्य प्रवृत्ति के चालू रहने पर भी अबन्ध अवस्था है । श्रमण-दीक्षा के समय साधक त्रिकरण न करूँ, न कराऊँ और न अनुमोदन ही करूँ और त्रियोग मन से, वचन से और काय से, हिंसा आदि (३२८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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