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________________ महाप्रभु ऋषभदेव ने उन्हें सर्व प्रथम कर्म करने की शिक्षा दी । उन्होंने कहा- तुम अब सिर्फ कल्प वृक्षों पर निर्भर मत रहो । लो यह हल। धरती पर हल चलाओ और अन्न उत्पन्न करो । खेती से प्राप्त अन्न तथा फल आदि से अपना एवं अपने परिवार का पालन-पोषण करो । इसी तरह किसी को हल चलाना सिखाया, किसी को चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाना सिखाया, किसी को चर्खे से सूत कातना और खडडी पर उसका वस्त्र बुनना सिखाया । किसी को सुनार का, किसी को लुहार का, तो किसी को बढ़ई का काम सिखाया। किसी को भवन निर्माण की कला सिखाई । कुछ व्यक्तियों को अर्थात् एक वर्ग विशेष को तलवार चलाना सिखाया, अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी, जिससे कि वह अपनी, अपने परिवार की एवं देश की समय पर रक्षा कर सके । भगवान् ने अपनी दोनों पुत्रियों, ब्राह्मी और सुन्दरी को लिपि एवं गणित की विद्या सिखाई । इस प्रकार असि, मसि और कृषि के अन्तर्गत जीवन को सम्यक् रुप से जीने की ६४ एवं ७२ कलाओं का प्रशिक्षण दिया । इन कलाओं में नृत्य, गान, आदि की वे ललित कलाएँ भी हैं, जो मानव के मनोरंजन की हैं । किन्तु बाद में क्या हुआ ? बाद में तो मध्यकाल तक आते-आते हमने लोगों के हाथों से कर्म छीनना शुरू किया । अहिंसा की व्यापक दृष्टि को छोड़कर, जीवनोपयोगी वस्तुओं के उत्पादक कृषि में, देश एवं परिवार की सुरक्षा के लिए धनुष - खड्ग आदि शस्त्रास्त्र के प्रयोग में एकान्ततः हिंसा का विधान कर आर्य-कर्म का ही निषेध कर दिया । आगमों में जिस कृषि कर्म को आर्य-कर्म, अल्पारंभ कहा है, कुछ आचार्यों एवं साधुओं ने महारंभ कहना शुरू कर दिया । परन्तु, किसी भी विचारक ने यह सोचने का, और इसकी गहराई में उतरने का प्रयत्न नहीं किया कि भगवान ने यह महारम्भ एवं महापाप का कर्म जनता के हाथ में क्यों दिया ? क्योंकि महारम्भ करने वाले की अपेक्षा महारम्भ का शिक्षण-प्रशिक्षण देने वाला अधिक बुरा होता है। अतः आज के कुछ धर्म के ठेकेदार नासमझ गुरुओं की दृष्टि से तो भगवान् ऋषभदेव पापात्मा थे, कि उन्होंने असि, मसि एवं कृषि का बोध दिया, जीवन-यापन के लिए आर्य-कर्म सिखाया । जरा अपने धर्म गुरुओं से पूछें कि खेती करनेवाले पापी हैं या खेती करना सिखाने वाले पापी हैं ? कुछ नासमझी का उत्तर देते हैं कि कृषि कर्म सिखाते समय वे गृहस्थ थे । परन्तु, गृहस्थ जीवन में भी वे विशिष्ट मति, श्रुत एवं अवधि के ज्ञानी तो थे न । फिर व्यर्थ का अनर्थ दण्ड क्यों करते ? वे तो गृहस्थ जीवन में भी महान् उच्चतर ज्ञान के धर्ता थे, तीर्थंकर होने वाले थे, फिर महापाप के पंक में क्यों स्वयं फसते और क्यों किसी और को फँसाते । और, फिर इसे आर्य-कर्म क्यों (२८०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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