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________________ भूल जाता है । आत्मा का अपने स्वरूप को भूल जाना ही संसार है । मोह में एक ऐसी शक्ति है, जिससे आत्मा को यह परिबोध नहीं होने पाता, कि मैं कौन हूं और मेरी शक्ति क्या है? मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा हूँ अथवा उससे पीछे हट रहा हूँ? इस प्रकार की बोधदशा आत्मा की विलुप्त हो जाती है । कहा जाता है, कि एक बार बनारस के कुछ पण्डों ने विचार किया, कि आज आश्विन मास की पूर्णिमा है । अत: गंगा स्नान यहाँ पर नहीं, तीर्थराज प्रयाग पर करना चाहिए । उन्होंने अपने इस विचार के अनुसार कार्यक्रम बनाया और गंगा के घाट पर पहुंच कर भंग का घोटा लगाकर सबने भंग पी और नाव पर सवार हो गए। नाव से यात्रा करके ही प्रयागराज पहुँचने का उनका विचार था । नाव पर सवार तो वे हो गए, किन्तु नाव का जो रस्सा तट पर के खूटे से बँधा था, उसे खोलने का ध्यान किसी को न रहा । वे लोग नाव में बैठे थे और नाव चला रहे थे, किन्तु नाव आगे न बढ़कर वहीं पर इधर-उधर गंगा की चंचल तरंगों पर थिरकती रही । रात्रि को जब चन्द्रमा का उदय हुआ, तब उन्होंने सोचा, आज बड़ा निर्मल सूर्य का उदय हुआ है । सूर्य का प्रकाश अत्यन्त स्वच्छ और सुखद है। अब हम प्रयागराज आ पहुँचे हैं । इस तीर्थराज पर अब हम सब संगम में स्नान करेंगे और फिर वापिस अपने घर लौट चलेंगे। किन्तु वस्तुत: वे प्रयागराज नहीं पहुँचे थे, बल्कि बनारस में ही उसी गंगा घाट पर थे, जहाँ से उन्होंने अपनी तीर्थ यात्रा प्रारम्भ की थी | सारी रात परिश्रम करने पर भी वे एक कदम आगे न बढ़ सके । प्रात:काल नशा कम हुआ तो उन्होंने देखा कि यह क्या हुआ, वही काशी, वही उसका घाट और वही गंगा का प्रवाह, जहाँ प्रतिदिन वे स्नान करते थे । हम तो सब प्रयाग चले थे, फिर काशी में ही कैसे रह गए, इस पर सबको बड़ा आश्चर्य था । उनके दूसरे मित्रों ने, जो गंगा पर स्नान करने आए थे, पूछा--"आज क्या सोच रहे हो, नौका में बैठकर कहाँ जाने का विचार कर रहे हो!" वे सब एक दूसरे का मुख देखने लगे और विचार करने लगे, कि यह हो क्या गया? देख-भाल करने पर पता लगा, कि नाव का रस्सा नहीं खोला गया है। इसीलिए नाव यहाँ की यहाँ पर ही रही, आगे नहीं बढ़ सकी । एक रात तो क्या हजार रात तक भी अगर परिश्रम करते, तब भी नौका आगे नहीं बढ़ सकती थी। यह बोध उन्हें कब हुआ, जब कि उनका भंग का नशा दूर हो गया । नशे की दशा में न उन्हें अपना सम्यक्-बोध था न नौका की गति का बोध था और न यही परिज्ञान था कि हम काशी में हैं अथवा प्रयाग पहुंच रहे हैं । यह कहानी एक रूपक है | उसके मर्म को और उसके रहस्य को समझने का आपको प्रयत्न करना चाहिए । (४४१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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