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________________ है । अच्छा-बुरा जो भी कुछ है, वह मन है | मन से ही तन का मूल्यांकन है। वृत्तियाँ ही प्रवृत्तियों के अच्छे-बुरे पन की परख-कसौटी है | अत: हिंसा और अहिंसा के प्रश्नों का यथार्थ समाधान भी मुख्यत: भाव में है । __ एक व्यक्ति किसी को मारने का विचार करता है, हत्या का आयोजन करता है, परन्तु वह मरता नहीं है, बच जाता है । इस प्रसंग में बाहर की हिंसा तो न हुई। तो प्रश्न है कि मारने का विचार तथा आयोजन करने वाले व्यक्ति को हिंसा का पाप लगा या नहीं ? एक मुख से सभी शास्त्रकारों, विचारकों का उत्तर है कि यहाँ हिंसा हुई है और व्यक्ति को उसके मारक भावों के अनुरूप तीव्र या मन्द पाप-कर्म का बन्ध हुआ है | आपका अन्तर्मन भी सूक्ष्म चिन्तन के धरातल पर यही साक्षी देता है । यही क्यों, कभी-कभी तो विचित्र ही परिणाम आ जाते हैं । मारने के विचार हैं, तदर्थ विष आदि का प्रयोग किया है और प्रसंगवश वह व्यक्ति किसी ऐसे रोग से ग्रस्त था, जो विष-चिकित्सा से ही ठीक हो सकता था | फलत: मरने के बजाय बच गया, बच गया ही नहीं, स्वस्थ भी हो गया । वह विष देनेवाले व्यक्ति को हजार-हजार साधुवाद एवं धन्यवाद देता है । बताइए यहाँ मारने के इरादे से विष देने वाले व्यक्ति को क्या हुआ ? पाप हुआ या पुण्य ? बाहर में भले ही पुण्य हुआ-सा लगता है, परन्तु अन्तरंग में एकान्त रूप से पाप का ही बन्ध हुआ है । पुण्य का यहाँ कुछ भी अंश नहीं है । क्यों नहीं है, इसलिए कि मारक व्यक्ति का तो मारने का ही भाव था। बचने वाला या स्वस्थ हो जाने वाला व्यक्ति अपने आयु-कर्म के उदयाधीन बचा है और विषप्रयोग होने पर भी जो मरने के बदले स्वस्थ हुआ है वह अपने सुख हेतुक सात-वेदनीय कर्म के उदय के कारण हुआ है । स्पष्ट है, यह हिंसा-अहिंसा और तज्जन्य पाप-पुण्य सब भाव की लीला है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति किसी प्राणी को बचाने का प्रयत्न करता है और इस प्रयत्न में आयु नि:शेष हो जाने के कारण वह बचता नहीं, अपितु मर जाता है । उदाहरण है, एक योग्य भावनाशील डाक्टर किसी मुनि का बिना किसी लोभ के मात्र भक्ति प्रेरित होकर ऑपरेशन करता है, किन्तु सावधानी रखते हुए भी भूल से कोई नस ऐसी कट जाती कि रक्त प्रवाह बन्द नहीं होता, फलत: मुनि की मृत्यु हो जाती है। यहाँ डाक्टर को पुण्य का बन्ध माना जाए, या पाप का ? निश्चित ही पुण्य का बन्ध है । भले ही बाहर में मृत्यु हुई है उसके निमित्त से, परन्तु डाक्टर के अन्तर्मन में बचाने के भाव हैं, (२३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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