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________________ समृद्धि वह समृद्धि होगी, जो स्व और पर अर्थात् सभी के लिए दूर-दूर तक धरती पर स्वर्ग का अवतरण कराएगी । अच्छा हो, हम बुरे विचारों के बीज बोने से बचें । अन्धे होकर, जो भी हाथ आए, वही बीज खेत में नहीं फेंक देना है | बहुत बड़ी सतर्कता की अपेक्षा है इस वपन क्रिया में । मूर्ख किसान जैसे भूमि पर के खेत में अनावश्यक बीज बोकर पछताता है, वैसे ही मानव भी अपनी मनोभूमि में व्यर्थ के अनावश्यक एवं अभद्र विचार-बीजों को बोकर परिणाम स्वरूप फसल पकने पर सिर पीट कर पछताया करता है । शुभत्व के विचार-बीजों को वपन करते समय भी जागृत रहना चाहिए। शुभ-विचार योंही सड़े गले एवं शक्तिहीन न हों । अच्छा बीज भी जैसे सड़ा, गला, घुना, पुराना एवं शक्तिहीन होता है, तो उससे कभी अच्छा अंकुर पैदा नहीं होता, लहलहाती हरी-भरी सुखद फसल नहीं होती, वैसे ही शुभ-विचार के बीज भी संकल्पहीन निर्बल, कमजोर हों, तो उनसे कैसे अभीष्ट अच्छे परिणाम आएँगे | समर्थ एवं सक्षम विचार ही समय पर अच्छे परिणाम ला सकते हैं । प्रस्तुत खेत और बीज की तुलना के साथ इसी से सम्बन्धित एक और बात भी ध्यान में रखने जैसी है। अच्छे से अच्छे अन्न के सशक्त बिना घुने और बिना सड़े गले बीज बोने पर भी खेत में असावधानी से इधर-उधर खर-पतवार खड़ा हो जाता है, कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं, और फसल का शोषण करनेवाला व्यर्थ का घास उग आता है । चतुर और उद्यमी किसान-बीच-बीच में समय-समय पर इन अवरोधक खर-पतवारों को उखाड़ फेंकता है । इसकी निरन्तर सावधानी रखता है । विचारशील पुरुषार्थी मानव भी मनोभूमि की खेती के लिए यही मार्ग अपनाता है । शुभ विचारों के बीजों के साथ कभी-कभी असावधानता के अंधेरे क्षणों में अशुभ विचारों के बीज भी आ पड़ते हैं। ये इतने मौनरूप में गिरते हैं, कि मानव को ठीक तरह पता भी नहीं लग पाता कि क्या-कुछ हुआ ? यदि कभी पता होता भी है, तो उनकी नगण्यता इतनी अधिक होती है कि व्यक्ति उपेक्षा कर जाता है | कि अरे यह तो कोई खास बात नहीं है । जाने दो, जो हुआ सो हुआ | इससे क्या हानि होने वाली है । परन्तु, वह यह नहीं सोचता कि ज्ञात या अज्ञात किसी भी रूप में मनोभूमि पर पड़े हुए दुर्विचारों के नगण्य एवं उपेक्षित बीज भी समय पर कितने भयंकर (२१२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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