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________________ वह स्वप्न में किस आधार पर दृष्ट हो गई ? यहाँ कारण और कार्य का परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । घटना के होने का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है, तो वह समय से पूर्व दिखाई कैसे देती है ? इस प्रकार के परोक्ष-दर्शन का पूर्वाभास होता है ? स्वप्न काल तक, घर पहुँचने तक लड़का फोन के खंभे पर चढ़ा ही नहीं है, तो यह सब घर से इतनी दूर दीख कैसे गया ? संभव है, अभी तक विज्ञान के पास इसका स्पष्ट समाधान न हो। किन्तु जैन-दर्शन में हर द्रव्य को, हर व्यक्ति को अनन्तानन्त गुण-पर्यायों का अखण्ड पुंज माना गया है । द्रव्य में पर्यायों का एक अनन्त स्तर है, स्तर पर स्तर या स्तर में स्तर | सब पर्याय क्रमबद्ध हैं । वे एक के बाद एक क्रम से उद्भूत होती रहती हैं । पात्र पहले से पर्दे के पीछे तैयार खड़े हैं । अपनी-अपनी बारी में क्रमश: रंगमंच पर अवतरित होते रहते हैं, अपना पार्ट अदा करने के लिए | और कार्य होने के बाद फिर पर्दे के पीछे गुप्त होते रहते हैं । दर्शन की भाषा में यह शक्ति से व्यक्ति का, तिरोभाव से आविर्भाव का एक अभेद्य क्रम है। मानना होगा, भविष्य एक पूर्णरूप से पूर्व निर्धारित, स्थिर एवं निश्चित स्थिति है। और इसका आधार नियति है, पर्यायों की क्रमबद्धता है । हम व्यवहार से काल को भूत, वर्तमान और भविष्य के रूप में विभक्त करते हैं । अन्यथा वह एक वर्तमान है । जो भी होने वाला है, वह पहले से ही अस्तित्व में है । श्री रावत ने इसके लिए कहा है - " सारी घटनाएँ एक लिपटी हुई फिल्म की तरह हैं । फिल्म जब चल रही होती है, तब जो हिस्सा चल चुका होता है वह भूत, जो सामने होता है वह वर्तमान और जो चलना बाकी है लेकिन है, वह पूर्व निश्चित ही भविष्य । आप रेल से यात्रा कर रहे हैं । जो दृश्य निकल चुका है उसे आप याद कर सकते हैं, भूत काल की तरह, जो देख रहे हैं वह वर्तमान है, और जो आगे आने वाला है, पर है पहले से विद्यमान, वह भविष्य है | " श्री रावत का यह कथन जैन-दर्शन से मेल खाता है । जैन-दर्शन प्रत्येक द्रव्य को अपने में सर्वतंत्र स्वतन्त्र मानकर चला है | उसके चिन्तन में हर द्रव्य अपने हर क्षण पूर्ण एक अखण्ड इकाई है । द्रव्य में जो कुछ भी होता है, अन्दर में अपने में से होता है | बाहर के किसी अन्य द्रव्य के द्वारा उस में गुणाधान नहीं होता है । 'स्व' का कर्ता 'स्व' है, 'पर का कर्ता वह 'पर' है । परस्पर एक-दूसरे का कोई कर्ता नहीं है । और यह कर्तृत्व पहले से, अनन्त-अनादि काल पहले से निश्चित है । नियतिवाद मानव मन को निर्भय और निर्द्वन्द्व बनाता है । सुख हो या (१९३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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