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________________ स्पष्ट प्रतिभासित होगा कि श्रीकृष्ण भयमुक्ति के लिए आत्मा के अविनाशी सिद्धान्त का जो उपदेश दे रहे हैं, वह किसी साधारण उपद्रव जन्य भय या अपितु किसी भी हिंसा से होने वाले संभावित यह सत्य है कि कृष्ण की दृष्टि में यह मृत्युभय तक ही सीमित नहीं है । पाप के भय से मुक्ति का संदेश है । हिंसा धर्म हेतु होनी चाहिए । तीर्थंकर महावीर का आत्मा के अविनाशी सिद्धान्त से प्रति फलित होने वाले भयमुक्ति का आदर्श भिन्न है । वे उक्त सिद्धान्त का उपदेश अहिंसा के महाव्रती साधक को देते हैं । उनका यह उपदेश साधक को अपनी मृत्यु के भय से मुक्त करने के लिए है । पूर्ण संयमी गृहत्यागी साधक जब किसी आकस्मिक मृत्यु के चक्र में फँस जाए, रोगादि की घातक स्थिति हो जाए, उपद्रवियों के आक्रमण का मरणान्त आतंक आ खड़ा हो, तब महावीर कहते हैं- डरो मत । रोओ मत। इधर-उधर गलत मार्ग पर भागो मत । जहाँ तक हो सके, भय का उचित एवं सात्त्विक प्रतिकार करो । फिर भी समाधान न हो पाये तो वीरता के साथ धर्मयुक्त मरण का वरण करो । आत्मा अविनाशी है, अत: तुम नहीं, तुम्हारा शरीर मरता है । महावीर का यहाँ उपदेश साधना की अन्तिम उच्च भूमिका से सम्बन्धित है । नीचे की भूमिकाओं में तो वे भी प्रतिकार की बात करते हैं । अहिंसा के अनेक अपवाद उन्होंने भी बताए हैं । अपवाद स्थिति में अल्प पाप या पापाभाव की बात वे भी करते हैं । पर, यह सब अन्तरंग में वीतराग - भाव की निर्द्वन्द्व भूमिका पर आधारित है । उनका जीवन दर्शन है प्रमाद ही पाप है कर्म है, बन्धन है । और अप्रमाद पवित्र है, मुक्ति है, अकर्म है। प्रमाद न हो तो कर्म भी अकर्म है । पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । प्रमाद है अज्ञान, अविवेक, मोह । इसी बात को महावीर के परम्परागत शिष्य जिनदास महत्तर अपने शब्दों में यों दुहराते हैं- “ पमायमूलो बन्धो भवति नि. चू. ६६८९ । कर्मबन्ध का मूल प्रमाद है । शरीर की बाह्य प्रवृत्ति बन्ध का हेतु नहीं । बन्ध का मूल हेतु है अन्दर की प्रामादिक वृत्ति | आचार्य जिनभद्र ने भी, जिन्हें कलिकाल के अज्ञान अन्धकार में ज्ञान का प्रदीप कहा गया है, विशेषावश्यक भाष्य ( गा. १५२९) में यथार्थ तात्त्विक घोषणा की है कि ' असुभो जो परिणामो सा हिंसा ।' आत्मा का अशुभ परिणाम, भाव ही हिंसा है । इसका अर्थ है शरीर की हिंसा हिंसा नहीं है, मन की हिंसा ही हिंसा है। तीर्थंकर महावीर के निकट के उत्तराधिकारी चतुर्दश पूर्वधर, महान श्रुतकेवली भद्रबाहु की दृष्टि में केवल बाहर की दृश्यमान हिंसा से 66 " " , इसका अर्थ है (१३६) Jain Education International - For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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