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________________ शरण प्राप्त हो, साधु का शरण प्राप्त हो और वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म - का शरण प्राप्त हो । बौद्ध धर्म में यही कहा गया है कि मैं बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में जाता हूँ। वैष्णव-परम्परा में भी प्रभु की शरण में जाने का उल्लेख मिलता है । गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सब कुछ छोड कर तू मेरी शरण स्वीकार कर । इसका अभिप्राय एक ही है कि साधक अपना कुछ नहीं समझता । उसका एक ही उद्देश्य रहता है - प्रभु के बताए हुए साधनापथ पर गीत करना । इसके अतिरिक्त उसके मन में न धन को पाने की इच्छा रहती है, न भोग-उपभोग के साधनों को पाने की लालसा रहती है, और न यश-प्रतिष्ठा की कामना रहती है । उसे अच्छा-बुरा जो कुछ भी मिलता है, उसे वह अपने पूर्व-कर्म का फल समझ कर समभावपूर्वक सहते हुए साधना-पथ पर बढ़ता रहता है, तो उसे किसी भी तरह की परेशानी नहीं होती और अनायास ही वह सब कुछ पा लेता है | जिसने प्रभु को अर्थात् स्व-स्वरूप को पा लिया, उसके लिए फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता है । एक बार एक राजा ने अपने राज्य की सीमा को बढ़ाने के लिए आक्रमण किया । अनेक देशों पर उसने विजय प्राप्त की। राज्य से विजय-यात्रा के लिए निकले हुए बहुत समय हो गया, उसने वापिस लौटने का विचार किया । उस नए जीते हुए देश से उसने अपनी सभी रानियों को दूत के साथ पत्र भेजा और साथ में अपने यहाँ से मिलने वाली विशेष वस्तुओं की एक सूची भी भेज दी कि जिसे जो वस्तु पसन्द हो, वह मँगा ले! किसी ने आभूषण मँगवाए, किसी में मूल्यवान वस्त्र लाने को लिखा, किसी ने कीमती जवाहरात की माँग की और . किसी ने खाद्य पदार्थ - फल, मेवा आदि मँगवाए | परन्तु जब दूत छोटी रानी के पास पहुँचा तो उसने पत्र पढ़ा और उत्तर में केवल इतना ही लिख दिया - "मैं तो आपको और एक मात्र आपको चाहती हूँ । आप शीघ्र आ जाएँ।” संदेशवाहक ने कहा - "कोई वस्तु भी तो मँगा लें ।" उसने कहा- "मुझे और कुछ नहीं चाहिए ।” राजा जब लौटा तो उसने सब रानियों के पास उनके द्वारा मँगाई हुई वस्तुएँ भेज दी और स्वयं छोटी रानी के पास चला गया | उसने कुछ भी नहीं मँगाया पर राजा मिल गया तो उसे सब कुछ मिल गया । जो एक को पा लेता है, वह सब कुछ पा लेता है । __ मनीषियों ने कहा है, कि जो साधक अपनी इच्छा एवं आकांक्षाओं का परित्याग करके अपने आप में, परमात्मा ज्योति में संलीन हो जाता है, वह मुक्ति (९५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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