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________________ अस्तेय-व्रत ३४५ पैदा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ उद्योगपति और श्रीमन्तों की शोषण-नीति और संग्रहवृति प्रतिदिन चोरी के नये-नये तरीके पैदा कर रही है। चोरी का अंतरंग कारण : __ यदि चोरी का अंतरंग कारण खोजेंगे, तो प्रतीत होगा कि उसका मूल इस बढ़ती हुई द्रव्य-लोलुपता में ही स्थित है। जिसके पास आज पाँच रुपये हैं, वह सौ रुपये कमाने की धुन में है। सौ रुपये वाला हजार, हजार वाला दस हजार और दस हजार वाला एक लाख करने की लालसा में फँसा हुआ है। पैसों की इस दौड़धूप में मनुष्य नीति और प्रामाणिकता को भी भूल गया है और येन केन प्रकारेण धन-संचय करने की ओर ही लगा हुआ है। इस प्रकार 'द्रव्य-लोलुपता' चोरी का अंतरंग कारण है। चोरी के बहुत से कारण हैं, जिनमें चार कारण मुख्य हैं। इनमें प्रथम कारण है, बेरोजगारी। काम-धन्धा नहीं मिलने से, बेकार हो जाने से और अपनी आजीविका नहीं चला सकने से कितने मनुष्य चोरी करना सीखते हैं। जो खानदानी और प्रामाणिक मनुष्य होते हैं, वे तो मरण पसन्द करते हैं, पर चोरी करना कभी नहीं चाहते हैं। परन्तु ऐसे व्यक्ति बहुत ही कम होते हैं। अधिकांश वर्ग तो बेकारी से घबराकर, काम-धन्धा नहीं मिलने से आखिरकार पेट का खड्डा भरने के लिए ही चोरी का मार्ग ग्रहण करते हैं। ____अपव्यय करना ही चोरी करना सिखाती है। अधिकांशतः श्रीमन्ताई में मनुष्य फिजूलखर्ची बन जाता है। एक बार हाथ के.खल जाने पर फिर उसे काबू में रखना कठिन हो जाता है। अपव्ययी के पास पैसा टिकता नहीं है, और जब वह निर्धन हो जाता है, तब वह अपनी फिजूलखर्ची की आदत से चोरी करने लग जाता है। अनेक मनुष्य विवाह आदि प्रसंग में कर्ज लेकर खर्च करते हैं, परन्तु बाद में जब उसे चुकाना पड़ता है, और कोई आमदनी का जरिया नहीं होता, तब वे चोरी का मार्ग ग्रहण करते हैं। इस प्रकार किसी भी प्रकार की फिजूलखर्ची या निरर्थक खर्च मनुष्य को अनैतिक मार्ग पर खींच ले जाता है। आज के मनुष्य, दुनिया की नजरों में, जो चोरी कही जाती है, उससे भले ही दूर रहें, पर शोषण और अनीति की सभ्य चोरी की तरफ तो वे झुकते ही हैं। चोरी का तीसरा कारण है—मान प्रतिष्ठा। मनुष्य बड़ा बनने के लिए लग्नादि प्रसंग में बहुत खर्च करता है। परन्तु यह सब धन वह पैदा कैसे करता है ? अनीति और शोषण द्वारा ही तो वह सब धन कमाया होता है न? चोरी का चौथा कारण है—स्वभाव। अशिक्षा और कुसंगति से कितने ही मनुष्यों की आदत चोरी करने की हो जाती है। चोरी का आन्तरिक कारण द्रव्य-लोलुपता है, जो कि संतोषवृत्ति प्राप्त करने से ही दूर हो सकती है और वह संतोषवृत्ति धर्माचरण से ही प्राप्त की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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