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________________ अहिंसाः विश्वशान्ति की आधारभूमि ३२५/ कुचलने में ज्यादा विश्वास रखना, मानव की पवित्र मानवता के प्रति अपना विश्वास खो देना है। कुचलने का दृष्टिकोण मूल में ही अमानवीय है, अनुचित है। इससे तो अपराधियों के चरित्र का अच्छा पक्ष भी दब जाता है। परिणामतः सुन्दर परिवर्तन की आशा के अभाव में एक बार अपराध करने वाला व्यक्ति सदा के लिए अपराधी हो जाता है। अपराधी से अपराधी व्यक्ति के पास भी एक उज्ज्वल चरित्र होता है, जो कि कुछ सामाजिक परिस्थितियों के कारण या तो दब जाता है, या अविकसित रह जाता है। अत: न्यायासन के बौद्धिक वर्ग को अहिंसा के प्रकाश में दण्ड के ऐसे उन्नत, सभ्य, सुसंस्कृत मनोवैज्ञानिक तरीके खोजने चाहिए, जिनसे अपराधियों.का सुप्त उज्ज्वल चरित्र सजग होकर वह समाज के लिए उपयोगी साबित हो सके। अहिंसा का सही मार्ग : हो सकता है, कुछ अपराधी बहुत ही निम्न स्तर के हों, उन पर मनोविज्ञान से सम्बन्धित भद्र प्रयोग कारगर न हो सकें, फलतः उनको शरीरिक दण्ड देना आवश्यक हो जाता है। इस अनिवार्य स्थिति में भी अहिंसा दर्शन कहता है कि जहाँ तक हो सके, करुणा से काम लो। शारीरिक दण्ड भी सापेक्ष होना चाहिए, मर्यादित होना चाहिए, निरपेक्ष एवं अमर्यादित नहीं। शान्त से शान्त माता भी कभी-कभी अपनी उद्दण्ड सन्तान को चाँटा मारने के लिए विवश हो जाती है, क्रुद्ध भी हो जाती है, किन्तु अन्तर में उसका मातृत्व क्रूर नहीं होता, कोमल ही रहता है। माता के द्वारा दिये जाने वाले शारीरिक दण्ड में भी हितबुद्धि रहती है, विवेक रहता है, एक उचित मर्यादा रहती है। भगवान् महावीर का अहिंसा दर्शन अन्त तक इसी भावना को लेकर चलता है। वह मानवचेतना के परिष्कार एवं संस्कार में आखिर तक अपना विश्वास बनाए रखता है। उनका आदर्श है-अहिंसा से काम लो। यह न हो सके तो अल्प से अल्पतर हिंसा का, कम से कम हिंसा का पथ चुनो, वह भी हिंसा के लिए नहीं, अपितु भविष्य की बड़ी हिंसा के प्रवाह को रोकने के लिए। इस प्रकार हिंसा में भी अहिंसा की दिव्य चेतना सुरक्षित रहनी चाहिए। अहिंसा : आज के परिप्रेक्ष्य में : . __अन्यायपूर्ण स्थिति को सहते रहना, अन्याय एवं अत्याचार को प्रोत्साहन देना है। यह दब्बूपन का मार्ग अहिंसा का मार्ग नहीं है। कायरता है, अहिंसा नहीं है। अहिंसा मानव से अन्याय-अत्याचार के प्रतिकार का न्यायोचित अधिकार नहीं छीनती है। वह कहती है, प्रतिकार करो, परन्तु प्रतिकार के आवेश में मुझे मत भूल जाना। प्रतिकार के मूल में विरोधी के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए, बुरी भावना नहीं। प्रेम, सद्भाव, नम्रता, आत्मत्याग अपने में एक बहुत बड़ी शक्ति है। कैसा भी प्रतिकार हो, इस शक्ति का चमत्कार एक दिन अवश्य होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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