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________________ धर्म और जीवन २७१ प्रकार, भारतीय दर्शन उधार-धर्म को नहीं मानता। वह नगद-धर्म में विश्वास करता है। वह कहता है, यदि तुमने तपस्या की तो तुम्हारी शुद्धि अभी इसी क्षण प्रारम्भ हो गई। यदि हिंसा का त्याग किया तो जीवन में तत्काल अहिंसा का प्रादुर्भाव हो गया। उसके एक हाथ में कारण है, तो दूसरे हाथ में कार्य है। दूसरे हाथ का भी अन्तर क्यों ? एक ही हाथ में सब कुछ है। जिस धर्म से जीवन में पवित्रता, निर्मलता और प्रकाश न जगमगाए, उससे सिर्फ भविष्य पर ही भरोसा रखना, अपने आप को धोखे में डालना है। भगवान् महावीर ने कहा है कि साधक को धर्म की ज्योति का प्रकाश जीवन में पग-पग पर प्राप्त करना चाहिए। जहाँ जीवन है, वहीं धर्म की ज्योति है। धर्म-स्थल, घर, बाजार, कार्यालय_जहाँ कहीं भी हो, धर्म का प्रकाश वहीं पर जगमगाना चाहिए। यह नहीं चल सकता कि आपका धर्मस्थान का धर्म अलग हो और बाजार का धर्म अलग हो। धर्मस्थल की साधना अलग हो और घर की साधना अलग हो। धर्मस्थल पर चींटी को सताते भी आपका कलेजा काँपता है और बाजार में गरीबों का खून बहाने पर भी मन में कुछ कम्पन न हो, यह कैसी बात रही ? महावीर का धर्म इस द्वैत को बर्दाश्त नहीं कर सकता। धर्म का स्रोत : चिन्तकों ने कहा है कि यदि अन्तर में धर्म का प्रकाश हो गया हो, तो कोई कारण नहीं कि बाहर में अन्धकार रहे। अन्तर के आलोक में विचरण करने वाला कभी बाहर के अन्धकार में नहीं भटक सकता। धर्म का सच्चा स्वरूप यही है कि यदि अन्तर में वह प्रकट होकर आनन्द की स्रोतस्विनी बहाता है, तो वह निश्चय ही सामाजिक, पारिवारिक एवं राष्ट्रीय जीवन के किनारों को सरसब्ज बनाएगा। नदी का, नहर का और तालाब का किनारा एवं परिपार्श्व कभी भी सूखा नहीं रह सकता। वहाँ हरी-भरी हरियाली की मोहक छटा छिटकती मिलेगी। यदि बाह्य और अन्तर जीवन में फर्क है, तो इसका मतलब यही है कि बाहर और भीतर दोनों ओर दिवाला ही दिवाला है, जीवन में धर्म का देवता प्रकट हुआ ही नहीं है, सिर्फ उसका स्वाँग ही रचा गया है। वंचना और प्रतारणामात्र है। भय और प्रलोभन : दुर्भाग्य यह है कि धर्म और वैराग्य के कुछ ऐसे रूप बन गए हैं कि उसमें वही सबसे बड़ा साधक समझा जाता है जो जीवन में सब ओर से उदासीन रहे। वह हर समय हर क्षण मृत्यु की नाटकीय यातनाओं को सामने रखता हुआ, जीवन के प्रति बिल्कुल नीरसता का भाव बनाये रखे। उसकी वाणी पर हमेशा संसार के दुःख, पीड़ा एवं शोक से संतप्त बनाने वाली गाथाएँ, मुखरित होती रहें। संसार के प्रति सदा ही उसका दृष्टिकोण घृणा, भय और असन्तोष से भरा रहता है। इस प्रकार उस साधक के जीवन में सदा मुर्दनी छाई रहती है और सर्वत्र मृत्यु ही मृत्यु एवं भय ही भय उसकी आँखों में नाचते रहते हैं। ऐसा साधक साधना के अमृत-फल का रसास्वादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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