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________________ ३१ एक बहुत ही पेचीदा और बहुत ही उलझा हुआ प्रश्न है कि जीवन और धर्म एक-दूसरे से पृथक् हैं या दोनों का केन्द्र एक ही है ? यह प्रश्न आज का नहीं, हजारों-हजारों साल पहले का है । साधना के क्षेत्र में बढ़ने वाले हर गुरु और हर शिष्य के सामने यह प्रश्न आया है । इस प्रश्न ने अनेक चिन्तकों के मस्तिष्कों को झकझोरा है कि जीवन और धर्म का परस्पर क्या सम्बन्ध है ? धर्म और जीवन जिस प्रकार यह प्रश्न अनादिकाल से चला आ रहा है, उसी प्रकार इसका उत्तर भी अनादिकाल से दिया जाता रहा है। हर गुरु, हर आचार्य और हर तीर्थङ्कर के सामने यह समस्या आई है कि जीवन और धर्म का क्या सम्बन्ध है ? और सभी ने अपनी ओर से इसका समुचित समाधान दिया है। उन्होंने बतलाया है कि जहाँ द्रव्य है, वहीं उसका स्वभाव भी है, जहाँ अग्नि है, वहीं उसका गुण - उष्णता भी है. जीवन चैतन्य स्वरूप है, धर्म उसका स्वभाव है तो फिर दोनों को पृथक् पृथक् किस प्रकार किया जा सकता है ? जहाँ साधक है, जहाँ साधक की निर्मल चेतना की ज्योति जगमगाती है, वहीं धर्म का प्रकाश भी जगमगाता रहता है। इस प्रकार जीवन और धर्म का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । J धर्म खिलौना नहीं है : जब-जब धर्म का स्वरूप बदला है, उसे किसी विशेष प्रकार की वेशभूषा, क्रियाकाण्ड और परम्पराओं से बाँधकर अलग रूप देने का प्रयास किया गया है, तबतब उसे एक अमुक सीमित काल की चीज करार देकर पुकारने का प्रयत्न भी हुआ है। कुछ समय से धर्म को एक ऐसा रूप दिया गया कि वह जीवन से अलग पड़ने लगा। स्थिति यहाँ तक बन गई कि जिस प्रकार छोटा बच्चा किसी खिलौने से घड़ीदो घड़ी खेलता रहता है, और फिर उस खिलौने को पटक देता है, खिलौना टूट-फूट जाता है और वह चल देता है । उसी प्रकार आज लोगों की, धर्म के सम्बन्ध में भी यही मनोवृत्ति बनी रही है। वे धर्म की अमुक प्रकार की क्रियाओं को— सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, पूजापाठ आदि को घड़ी दो घड़ी के लिए अपनाते हैं, कुछ थकेसे और कुछ अलसाये से क्रियाकाण्ड के रूप में धर्म के खिलौने से खेल लेते हैं और फिर इस कदर लापरवाही से पटक कर चल देते हैं कि ये धर्म से कोई वास्ता नहीं रखते। उन्हें फिर धर्म की कोई खबर नहीं रहती । इस प्रकार धर्म को दो-चार घड़ी की चीज मान लेने पर वह जीवन से भिन्न ही क्षेत्र की वस्तु बन गया । दैनिक जीवन के साथ उसका कोई सम्पर्क नहीं रहा और वह धर्म टुकड़ों में विभक्त हो गया। I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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