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________________ | १२८ चिंतन की मनोभूमि अब प्रश्न यह होता है, कि मन क्या है ? मन के विषय में बहुत कुछ गम्भीर विचार किया गया है, किन्तु मैं यहाँ पर आपके समक्ष संक्षेप में ही कथन करूँगा। मैं अभी आपसे कह चुका हूँ कि उक्त पाँचों इन्द्रियों का विषय भिन्न-भिन्न है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय का ग्रहण नहीं कर कर सकती, उदाहरण के लिए रूप को चक्षु ही ग्रहण कर सकती है, श्रोत्र नहीं और शब्द को श्रोत्र ही ग्रहण कर सकता है, चक्षु नहीं। प्रत्येक इन्द्रिय की अपनी-अपनी विषयगत सीमा और मर्यादा है, परन्तु मन के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। मन एक सूक्ष्म इन्द्रिय है, जो सभी इन्द्रियों के सभी विषयों को ग्रहण कर सकता है। इसी आधार पर मन को सर्वार्थग्राही इन्द्रिय कहा जाता है। मन को कहीं-कहीं पर अनिन्द्रिय भी कहा गया है। मन को अनिन्द्रिय कहने का अभिप्राय यही है, कि उसका कोई बाह्य आकार न होने से वह अत्यन्त सूक्ष्म है। अतः वह इन्द्रिय न होते हुए भी इन्द्रिय सदृश है। मन के दो भेद किए गए हैं....द्रव्यमन और भावमन। द्रव्यमन पौद्गलिक है। भावमन उपयोग रूप है। इस प्रकार शास्त्रों में मन के स्वरूप का जो प्रतिपादन किया गया है, वहाँ यह बताया गया है कि भावमन संसार के प्रत्येक प्राणी को होता है, किन्तु द्रव्यमन किसी को होता है और किसी को नहीं भी होता है। जिस संसारी जीव में भावमन के साथ द्रव्यमन भी हो, वह संज्ञी कहलाता है और जिसके भावमन के साथ द्रव्यमन न हो तो वह असंज्ञी कहा जाता है। मन का कार्य है-चिन्तन करना। वह स्वतन्त्र चिन्तन के अतिरिक्त इन्द्रिय के द्वारा गृहीत वस्तुओं के बारे में भी चिन्तन करता है। मन में एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह इन्द्रियों से अगृहीत अर्थ का चिन्तन भी कर सकता है। इसी को मनोजन्यज्ञान कहा गया है। कल्पना कीजिए, आपने अपने कान से घट शब्द सुना, तो आप को घट शब्द मात्र का ही ज्ञान होता है, किन्तु घट शब्द का अर्थ क्या है, यह परिज्ञान नहीं होने पाता। यह मन का विषय है। मन के व्यापार में इन्द्रिय का व्यापार होता भी है और नहीं भी। संसार में जितने भी विषय हैं, वे प्रत्यक्ष हों अथवा परोक्ष हों, उन सब का ज्ञान मन से हो सकता है। इसीलिए मन को सर्वार्थग्राही कहा जाता है। किसी भी पदार्थ के ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन की सहायता अपेक्षित तो रहती ही है, किन्तु अन्य भी प्रकाश आदि कुछ ऐसे कारण हैं, जो मतिज्ञान में निमित्त होते हैं। किन्तु यह प्रकाश आदि ज्ञानोत्पत्ति के अनिवार्य और अव्यवहित कारण नहीं हैं। आकाश और काल आदि की भाँति व्यवहित कारण हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं, कि मतिज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन की सहायता की आवश्यकता रहती है। शब्द के ज्ञान के लिए श्रोत्र की, रूपज्ञान के लिए चक्षु की, गन्धज्ञान के लिए घ्राण की, रसज्ञान के लिए रसन की और स्पर्श ज्ञान के लिए स्पर्शन इन्द्रिय की आवश्यकता रहती है और मन, वह तो इन्द्रियों द्वारा गृहीत और अगृहीत सभी विषयों में चिन्तन और मनन करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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