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________________ पत्रविचार: ७०१ तत्राद्यविकल्पत्रये सभ्यानामग्रे त्रिरुच्चारणीयमेव तत्तत्रापि वैषम्यात् । तथोच्चारितमपि यदा प्राश्निकैः प्रतिवादिना च न ज्ञायते वाद्यऽभिप्रेतार्थानुकूल्येन तदा तद्दातुः किं भविष्यति ? निग्रहः, "त्रिरभिहितस्यापि कष्टप्रयोगद्रुतोच्चारादिभिः परिषदा प्रतिवादिना चाज्ञातमज्ञातं नाम निग्रहस्थानम्' [ न्यायसू० ५।२।६ ] इत्यभिधानात्, इति चेत्; तस्य तर्हि स्ववधाय कृत्योत्थापनम् उक्तविधिना सर्वत्र तदज्ञानसम्भवात् । तावन्मात्रप्रयोगाच्च स्वपरपक्षसाधनदूषणभावे प्रतिवाद्युपन्यासमनपेक्ष्यैव पूर्वोक्तरीत्या खंडित होता है, क्योंकि प्राश्निक पुरुष भी ऐसे अर्थ का निश्चय नहीं कर सकते । किंच, यह पत्र किस प्रकार का होता है पत्रदाता के स्वपक्ष के साधन वचन वाला होता है या प्रतिवादी के पक्ष के दूषण वचन वाला होता है, अथवा उभय वचन वाला है या कि अनुभव वचन वाला है ? ग्रादि के तीनों विकल्प माने तो ठीक नहीं जचता, उक्त प्रकार के पत्र सभ्यों के प्रागे तीन बार सूनाया जाना चाहिये ऐसा सामान्य नियम है तदनुसार पत्र वाक्य का तीन बार उच्चारण भी कर दिया किन्तु जब प्रतिवादी और प्राश्निक पुरुष उस पत्र के अर्थ को वादी के द्वारा इष्ट किये गये अर्थानुसार ज्ञात न कर सकेंगे तब पत्रदाता वादी का क्या किया जायगा ? निग्रह ही किया जाना चाहिये क्योंकि वाद में वादो के द्वारा अनुमान वाक्य तीन बार कहा फिर भी कठिन वाक्यार्थ के कारण अथवा शीघ्रता से उच्चारण करने के कारण सभ्य और प्रतिवादी उक्त वाक्यार्थ को नहीं जानते तो अज्ञात नामा निग्रह स्थान वादी के ऊपर लागू होता है । इसतरह निग्रह का प्रसङ्ग तो उस वादी के लिये घातक ठहरा अर्थात् पत्र का प्रयोग करना तो "स्ववधाय कृत्या उत्थापनम्' अपने वध के लिये राक्षसी को उठाने के समान है, क्योंकि उक्त विधि से तो सर्वत्र पत्र वाक्य सम्बन्धी अज्ञान रहना संभव है अर्थात् पत्र वाक्य गूढ होने के कारण सभ्य आदि को उसका ज्ञान न होना सहज बात है। तथा यदि उतने पत्र प्रयोग मात्र से स्वपक्ष साधन और पर पक्ष दूषण होना स्वीकारे तो प्रतिवादी के प्रतिवचन की अपेक्षा किये बिना हो सभ्यजन वादी की जय और प्रतिवादो के पराजय की व्यवस्था कर देवे ? [ किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है ] चतुर्थ विकल्प-वादी का पत्र अनुभय वचन वाला है अर्थात् न स्वपक्ष साधक है न परपक्ष दूषक है केवल अनुभय वचन युक्त है, ऐसा कहे तो वादी का निग्रह निश्चित ही होगा, क्योंकि उसने स्वपक्ष में साधन या परपक्ष में दूषणरूप कुछ वचन कहा ही नहीं । अब इस पत्र के विवेचन को समाप्त करते हैं। उपयुक्त पत्र सम्बन्धी विवेचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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