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________________ ५४० प्रमेयकमलमार्तण्डे सपक्षे तस्यैवाभावात् । न ह्याकाशे शब्दादन्यो विशेषगुणः कश्चिदस्ति यः सपक्षः स्यात् । परममहापरिमाणादेरन्यत्रापि प्रवत्तित : साधारणगुणत्वात् । पक्षविपक्षकदेशवृत्तिरविद्यमानसपक्षो यथा-सत्तासम्बन्धिनः षट् पदार्था उत्पत्तिमत्त्वात् । प्रत्र हि हेतुः पक्षीकृतषट्पदार्थंकदेशे अनित्य द्रव्यगुण कर्मण्येव वर्तते न नित्यद्रव्यादी। विपक्षे चासत्तासम्बन्धिनि प्रागभावाद्येकदेशे प्रध्वंसाभावे वर्तते न तु प्रागभावादौ । सपक्षस्य चासम्भवादेव तत्रास्यावृत्ति: सिद्धा। पक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तिरविद्यमानसपक्षो यथा-पाकाविशेषगुणः शब्दो बाह्य न्द्रियग्राह्यत्वात् । अयं हि हेतुः पक्षीकृते शब्दे वर्त्तते । विपक्षस्य चानाकाशविशेषगुणस्यैकदेशे रूपादौ वर्तते न तु सुखादौ । सपक्षस्य चासम्भवादेव तत्रास्याऽवृत्तिः सिद्धा। नहीं है ऐसे घट आदि विपक्ष में भी रहता है, किन्तु सपक्ष में नहीं रहता, क्योंकि इसका सपक्ष होता ही नहीं इसका भी कारण यह है कि आकाश में शब्द को छोड़कर अन्य कोई भी विशेष गुण नहीं होता जो उसका सपक्ष बने ! परम महा परिमाणादि गुण रहते तो हैं किंतु वे आत्मादि अन्य द्रव्य में भी रहते हैं अतः सामान्य गुण रूप ही कहलाते हैं विशेष गुणरूप नहीं। जो हेतु पक्ष और विपक्ष के एक देश में रहता है तथा सपक्ष जिसका नहीं है वह दूसरा विरुद्ध हेत्वाभास है, जैसे-द्रव्य, गुण आदि छहों पदार्थ सत्ता सम्बन्ध वाले होते हैं, क्योंकि उत्पत्तिमान हैं, इस अनुमान में जो उत्पत्तिमत्व हेतु है वह पक्ष में लिये छहों पदार्थों में न रहकर एक देश में अर्थात् अनित्य द्रव्य तथा गुण एवं कर्म में मात्र रहता है, नित्य द्रव्यादि अन्य पदार्थों में नहीं रहता। विपक्ष जो असत्ता सम्बन्धी है ऐसे चार प्रकार के प्रभावों में न रहकर सिर्फ एक देश जो प्रध्वंसाभाव उसी में उत्पत्तिमत्व हेतु रहता है अन्य प्रागभाव आदि तीन प्रकार के प्रभावों में नहीं रहता । इस हेतु का सपक्ष नहीं होने से उसमें रहना प्रसिद्ध ही है। जो हेत पक्ष में पूर्णतया व्यापक हो, विपक्ष के एक देश में रहता है, एवं अविद्यमान सपक्षभूत है वह तोसरा विरुद्ध हेत्वाभास है, जैसे-शब्द आकाश का विशेष गुण है, क्योंकि बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्ष है, यह बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षत्व हेतु पक्षरूप शब्द में रहता है, अनाकाश के विशेषगुणभूत रूपरसादि विपक्ष के एक देश में तो है किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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