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________________ २६६ प्रमेयकमलमार्तण्डे तत्समवायिकारणस्य भेदात् । शब्दस्य क्षणिकत्वनिषेधाच्च कथं समानजातीयासमवायिकारणत्वम् ? यदि चाकाशमनवयवं शब्दस्य समवायिकारणं स्यात्; तर्हि शब्दस्य नित्यत्वं सर्वगतत्वं च स्यादाकाशगुणत्वात्तन्महत्त्ववत् । क्षणिकैकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वस्य शब्दे प्रमाणतः प्रतिषेधाच्च । तत्त्वे वा कथं न शब्दाधारस्याकाशस्य सावयवत्वम् ? न हि निरवयवत्वे 'तस्यैकदेशे एव शब्दो वर्तते न सर्वत्र' इति विभागो घटते। किञ्च, सावयवमाकाशं हिमवद्विन्ध्यावरुद्धविभिन्न देशत्वाद्भूमिवत् । अन्यथा तयो रूपरसयोरिवैकदेशाकाशावस्थितिप्रसक्तिः । न चैतद् दृष्टमिष्टं वा। वैशेषिक शब्द को क्षणिक मानते हैं उनका कहना है कि वक्ता के मुख से प्रथम शब्द वायु तथा आकाश आदि के संयोग से उत्पन्न होता है किन्तु आगे के शब्द जल में लहरों के समान उत्पन्न होकर नष्ट होते जाते हैं श्रोता के कान तक पहुंचने वाला अन्तिम शब्द सुनायी देता है बीच के शब्द तो आगे आगे के शब्द को उत्पन्न कर नष्ट होते हैं । किन्तु यह बात प्रसिद्ध है क्योंकि शब्द सर्वथा क्षणिक नहीं है इसप्रकार शब्द का समवायी कारण अाकाश है और असमवायी कारण तालु आदि का संयोग एवं शब्दादि है इत्यादि कहना प्रसिद्ध हुआ । पाप वैशेषिक आकाश को अवयव रहित मानते हैं सो ऐसा अनवयव स्वरूप आकाश शब्द का समवायी कारण बताया जाय तो शब्द को नित्य तथा सर्वगत भी मानना होगा क्योंकि वह आकाश का गुण है, जैसे अाकाश का महत्वगण आकाश के समान नित्य तथा सर्वगत है । शब्द को प्राकाश गुण बतलाकर पुनः उसे क्षणिक तथा एक देश में रहने वाला एवं विशेष गुण रूप मानना प्रमाण से बाधित है। आकाश तो नित्य सर्वगत हो और उसका विशेष गुण क्षणिक असर्वगत हो ऐसा हो नहीं सकता है। यदि शब्द को एक देश में रहने वाला इत्यादि स्वरूप माना जाय तो उसके आधारभूत आकाश के सावयवपना किस प्रकार नहीं आवेगा ? अवश्य आवेगा। सहज सिद्ध बात है कि शब्द यदि आकाश के एक देश में रहता है तो उसके मायने आकाश के देशअवयव हैं क्योंकि अाकाश यदि निरवयव-अवयव रहित है तो उसके एक देश में शब्द रहता है, सब जगह नहीं रहता, ऐसा विभाग नहीं हो सकता । - आकाश को अवयव रहित मानना अनुमान बाधित भी होता है, आकाश सावयवी है, [साध्य] क्योंकि हिमाचल और विंध्याचल द्वारा रोके गये उसके प्रदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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