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________________ अवयविस्वरूपविचारः २४५ न्तरेण च वृत्त रसम्भवात् । न खलु कुण्डादौ बदरादेः स्तम्भादौ वा वंशादेः कात्स्न्यैकदेशं परित्यज्य प्रकारान्तरेण वृत्तिः प्रतीयते । ततोऽवयवेभ्यो भिन्नस्यावयविनो विचार्यमाणस्यायोगान्नासौ तथाभूतोभ्युपगन्तव्यः। किं तहि ? तन्त्वाद्यवयवानामेवावस्थाविशेषः स्वात्मभूत : शीतापनोदाद्यर्थक्रियाकारी प्रमाणतः प्रतीयमानः पटाद्यवयवी ति प्रेक्षादक्षः प्रतिपत्तव्यम् । ननु रूपादिव्यतिरेकेणापरस्यावस्थातुः शोताद्यपनोदसमर्थस्याप्रतीतितोऽसत्त्वात् कस्यावयवित्वं भवतापि प्रसाध्यते ? चक्षुःप्रभव प्रत्यये हि रूप मेवावभासते नापरस्त द्वान्, एवं रसनादिप्रत्ययेपि ऐसा सोचे तो कोई प्रकार दिखायी नहीं देता है। कुड आदि में बेर आदि का अथवा स्तंभादि में बांसादिका एकदेश और सर्वदेशपने को छोड़कर तीसरा कोई रहने का प्रकार दिखायी नहीं देता है, अतः अंत में यही सिद्ध होता है कि अवयवों से पृथक अवयवी प्रतीत नहीं होता उसका विचार करें तो विचार में आता नहीं, अतः ऐसे अवयवो को स्वीकार हो नहीं करना चाहिए। इस पर परवादी प्रश्न करे कि फिर आप जैन किस तरह के अवयवी को मानते हैं ? तो हम बताते हैं "तन्त्वाद्यवग्रवानामेवावस्थाविशेषः स्वात्मभूतः शीतापनोदाद्यर्थक्रियाकारी प्रमाणतः प्रतीयमान: पटाद्यवयवी इति" तंतु आदि अवयवों का अवस्थाविशेष होना-पातान वितानभूत परिणमन विशेष होना ही पटादि अवयवी द्रव्य है जो कि उन अवयवों से स्वात्मभूत है-कथंचित् अभिन्न एवं भिन्न है, वही शीतबाधा दूर करना इत्यादि अर्थ क्रिया करने में समर्थ होता हुआ प्रमाण से प्रतीत हो रहा है “इस प्रकार के पट आदि अवयवो हुआ करते हैं ऐसा प्रेक्षावानों को स्वीकार करना चाहिए । ___ शंका-रूप आदि को छोड़कर अन्य कोई स्थायी शीत आदि बाधा को दूर करने में समर्थ ऐसा पदार्थ प्रतीति में नहीं आता है, अतः अवयवीपना किस द्रव्य को सिद्ध किया जाय ? अर्थात् आप जैन किसको अवयवी मानते हैं ? रूप, रसादि से पृथक् कोई चीज दिखायी ही नहीं देती, हम नेत्र ज्ञान द्वारा देखते हैं तो रूप मात्र तो प्रतीत होता है किन्तु इससे अन्य रूपादियुक्त-रूपादिमान पदार्थ दिखायी नहीं देता, ऐसे ही रसत्व तो प्रतीत होता है किन्तु कहीं पर रसयुक्त अपर पदार्थ प्रतीत नहीं होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि रूपादि अवयव मात्र हैं इनसे अतिरिक्त अवयवी नामकी कोई वस्तु नहीं है, जब अवयवी कोई सत्य पदार्थ ही नहीं है तो आप जैन तथा वैशेषिक व्यर्थ ही उसके विषय में विवाद क्यों करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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