SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्राह्मणत्वजातिनिरासः क्रियां कुर्वाणः । ततो ब्राह्मण्यजातेः प्रत्यक्षतोऽप्रतिभासनात्कथं व्रतबन्धवेदाध्ययनादि विशिष्टव्यक्तावेव सिद्धये त् ? यदप्युक्तम्-'ब्राह्मणपदम्' इत्याद्यनुमानम् ; तत्र व्यक्तिव्यतिरिक्तकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वं तत्पदस्याध्यक्षबाधितम्, कठकलापादिव्यक्तीनां ब्राह्मण्यविविक्तानां प्रत्यक्षतो निश्चयात्, अश्रावणत्वविविक्तशब्दवत् । अप्रसिद्ध विशेषणश्च पक्षः; न खलु व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयाभिसम्बद्धत्वं मोमांसकस्यास्माकं वा क्वचित्प्रसिद्धम्, व्यक्तिभ्यो व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याभ्युपगमात् । होता । देखा जाता है कि कोई शद्र मनुष्य अपनी जाति को छिपाकर स्वयं देशान्तर में बाह्मण भेषी बनता है और वेदों का पठन पाठन करता है एवं वेद कथित क्रियानुष्ठान को करता है । अतः यह निश्चय होता है कि ब्राह्मण्य जाति प्रत्यक्ष से प्रतीत नहीं है । जब बाह्मण्य प्रत्यक्षगम्य नहीं है तो व्रत बन्ध-यज्ञोपवीत, चोटी, वेदों का अध्ययन कराना आदि विशिष्ट व्यक्ति में ही होता है इत्यादि मीमांसकादि परवादी का कथन कसे सिद्ध होगा ? अर्थात् नहीं होगा। आपने "ब्राह्मण पद व्यक्ति से भिन्न निमित्त का वाच्य है" इत्यादि अनुमान उपस्थित किया था वह ठीक नहीं है आगे इसी का विवेचन करते हैं-'ब्राह्मणः' यह पद ब्राह्मण पुरुष के अतिरिक्त निमित्त रूप जो वाच्य है उससे सम्बद्ध है, क्योंकि वह पदरूप है । इस प्रकार ब्राह्मण पद को व्यक्ति से पृथक् किसी निमित्त से सम्बद्ध मानना प्रत्यक्ष बाधित है । क्योंकि ब्राह्मण्य से रहित कठ, कलाप आदि व्यक्तियों का प्रत्यक्ष से निश्चय होता है। जैसे कि अश्रावणत्व से रहित शब्द प्रत्यक्ष से निश्चित हो जाने से शब्द को अश्रावण रूप सिद्ध करने के लिये पक्ष बनाना प्रत्यक्ष बाधित होता है, अर्थात् शब्द अश्रावण ( सुनने योग्य नहीं ) होता है ऐसा कहना प्रत्यक्ष बाधित है, ऐसे ही ब्राह्मण पद ब्राह्मण व्यक्ति से पृथक्भुत किसी निमित्त से सम्बद्ध है ऐसा कहना प्रत्यक्ष बाधित है। ब्राह्मण यह पद है" ऐसा पक्ष अप्रसिद्ध विशेषण वाला भी है, कैसे सो ही बताते हैं-बाह्मण पद ब्राह्मण व्यक्तियों से पृथक् एक ब्राह्मण्य निमित्त रूप वाच्य से सम्बद्ध है ऐसा न मीमांसक के यहां प्रसिद्ध है और हम जैन के यहां प्रसिद्ध है, व्यक्तियों से भिन्नाभिन्न रूप सामान्य को ही मीमांसकादि ने स्वीकार किया है, सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy