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________________ ४६५ शब्द नित्यत्ववाद! नापि व्यक्तिसमवायः; वर्णस्य व्यक्त्यसम्भवात्, अन्यथा सामान्यात्कोस्य विशेषः ? अत एव न तद्ग्रहणापेक्षग्रहणता। नापि व्यंजकसन्निधानमात्रम्; सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रतिपत्तृभिः सर्ववर्णानां ग्रहणप्रसंगात् । ननु प्रतिनियतेन ध्वनिना प्रतिनियतो वर्णः संस्कृतः प्रतिनियतेनैव प्रतिपत्त्रा प्रतीयते तथैव सामर्थ्यात् : उक्त च सर्वथा नित्य है तब ध्वनि द्वारा उसके स्वरूपका परिपोष होना रूप संस्कार कैसे संभव हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। यदि नित्य शब्द के स्वभावका अन्यथाकरण मानते हैं तो स्वभावातिशय के पक्ष में दिया गया दोष आता है। भावार्थ-व्यंजक ध्वनि द्वारा शब्द के स्वभावका परिपोष होना शब्द संस्कार कहलाता है ऐसा शब्द संस्कार का अर्थ करते हैं तो प्रथम तो नित्य शब्द में संस्कार होना ही अशक्य है, दूसरे स्वरूप या स्वभावका परिवर्तन होने रूप जो संस्कार है वह शब्दसे भिन्न है या अभिन्न है ऐसा प्रश्न होता है, यदि भिन्न है तो ध्वनिने शब्द का कुछ भी नहीं किया, शब्द तो जैसा पहले अश्रवण ( सुनाई नहीं देना ) रूप था वैसा ही रहा ? उक्त संस्कार शब्द से अभिन्न है तो ध्वनि ने शब्दको किया ऐसा सिद्ध होता है इससे शब्द अनित्यरूप ठहरता है, इस तरह स्वरूपपरिपोषको शब्द संस्कार कहते हैं ऐसा चौथा विकल्प असत् हो जाता है । व्यक्ति में ( क, ग, ख आदि में ) समवाय होने को शब्द संस्कार कहते हैं ऐसा पंचम विकल्प भी अनुचित है, वर्णकी ( शब्द की ) व्यक्ति असंभव है यदि शब्द में व्यक्ति अर्थात् विशेष संभव है तो सामान्य से इसमें क्या विशेषता है कि शब्द में व्यक्ति तो मान ली जाय और सामान्य न माना जाय ? अतः व्यक्ति में समवाय होने को शब्द संस्कार कहते हैं ऐसा पक्ष गलत है। व्यक्ति ग्रहण की अपेक्षा से शब्दग्रहणता का होना शब्द संस्कार है ऐसा छठवां विकल्प भी पूर्ववत् असत् है ? व्यञ्जक का सन्निधान होने मात्र को शब्द संस्कार कहते हैं ऐसा सातवां विकल्प भी ठीक नहीं, क्योंकि व्यंजक के सन्निधान को शब्द संस्कार मानेंगे तो सर्वत्र सर्वदा सभी प्रतिपत्ता को सर्ववर्णों का ग्रहण हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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