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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे शब्दसन्दर्भस्य चागमप्रमाणव्यपदेशाभावः । शब्दो हि प्रमाणकारणकार्यत्वादुपचारत एव प्रमाणव्यपदेशमर्हति । ४२० ननु चातीन्द्रियार्थस्य द्रष्टुः कस्यचिदाप्तस्याभावात् तत्राऽपौरुषेयस्यागमस्यैव प्रामाण्यात् कथमाप्तवचननिबन्धनं तद् ? इत्यपि मनोरथमात्रम् अतीन्द्रियार्थ द्रष्टुर्भगवतः प्राक्प्रसाधितत्वात्, आगमस्य चाऽपौरुषेयत्वासिद्ध: । तद्धि पदस्य, वाक्यस्य, वर्णानां वाऽभ्युपगम्येत प्रकारान्तरा आगम प्रमाण नहीं कहलाते । प्राप्तके वचनको जो ग्रागम प्रमाण माना वह कारण में कार्यका उपचार करके माना है, अर्थात् वचन सुनकर ज्ञान होता है अतः वचनको भी आगम प्रमाण कह देते हैं, किन्तु यह उपचार मात्र है वास्तविक तो ज्ञानरूप ही आगम प्रमाण है । विशेषार्थ - प्राप्त के ( सर्वज्ञके) वचन आदिके निमित्तसे जो पदार्थोंका बोध होता है वह ग्रागम प्रमाण कहलाता है, इसप्रकार श्रागम प्रमाणका लक्षण है । यदि पदार्थोंके ज्ञानको ग्रागम प्रमाण कहते हैं इतना मात्र लक्षण होता तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों में प्रतिव्याप्ति होती, क्योंकि पदार्थों का ज्ञान तो प्रत्यक्षादिसे भी होता है अतः वचनोंके निमित्तसे होनेवाला ज्ञान आगम प्रमाण है ऐसा कहा है, "वचन निबंधनमर्थ ज्ञान मागमः" इतना ही प्रागम प्रमाणका लक्षण करते तो रथ्यापुरुषके वचन, उन्मत्त, सुप्त, ठग पुरुष के वचन भी ग्रागम प्रमाणके निमित्त बन जाते अतः 'प्राप्त' ऐसा विशेषण प्रयुक्त किया है । सूत्रमें "अर्थ" यह शब्द प्राया है उसका मतलब है प्रयोजनभूत पदार्थ, अथवा जिससे तात्पर्य निकले उसे अर्थ कहते हैं, तथा बौद्ध शब्दके द्वारा अर्थका ज्ञान न होकर सिर्फ ग्रन्यवस्तुका प्रपोह होना मानते हैं उस मान्यताका अर्थ पदसे खण्डन हो जाता है, अर्थात् शब्द वास्तविक पदार्थ के प्रतिपादक है न कि अन्यापोहके । शब्द और अर्थ में ऐसा ही स्वाभाविक वाचक- वाच्य संबंध है कि घट शब्द द्वारा घट पदार्थ कथनमें अवश्य आ जाता है । घट पदार्थ में वाच्य शक्ति और शब्दमें वाचक शक्ति हुआ करती है । इसप्रकार प्राप्त पुरुषों द्वारा कहे हुए वचनों को सुनकर पदार्थका जो ज्ञान होता है वह ग्रागम प्रमाण है ऐसा निश्चय होता है । शंका- प्रतीन्द्रिय पदार्थोंको जानने देखनेवाले आप्तनामा पुरुष होना ही असंभव है, अतः ग्रपौरुषेय श्रागमको ही प्रमाणभूत माना गया है, फिर जो ज्ञान प्राप्त वचन के निमित्त से हो वह आगम प्रमाण है ऐसा कहना किसप्रकार सिद्ध हो ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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