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________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि ४१३ विरुद्ध कारणानुपलब्धिर्यथा-- अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ।।८८॥ दुःखेन हि विरुद्ध सुखम्, तस्य कारणमभीष्टार्थेन संयोगः, तदभावस्तदनुपलब्धिदु:खास्तित्वं गमयतीति । विरुद्धस्वभावानुपलब्धिर्यथा अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तानुपलब्धेः ।।८९।। अनेकान्तेन हि विरुद्धो नित्यैकान्त: क्षणिकैकान्लो वा। तस्य चानुपलब्धिः प्रत्यक्षादिप्रमाणेनाऽस्य ग्रहणाभावात्सुप्रसिद्धा । यथा च प्रत्यक्षादेस्तद्ग्राहकत्वाभावस्तथा विषयविचारप्रस्तावे विचारयिष्यते। ननु चैतत्साक्षाद्विधौ निषेधे वा परिसङ्ख्यातं साधनमस्तु। यत्तु परम्परया विधेनिषेधस्य वा साधकं तदुक्तसाधनप्रकारेभ्योऽन्यत्वादुक्तसाधनसङ्ख्याव्याघातकारि छलसाधनान्तरमनुषज्येत । इत्याशङ्कय परम्परयेत्यादिना प्रतिविधत्ते विरुद्ध कारणानुपलब्धि हेतुका उदाहरण-- अस्त्यत्र देहिनि दुःख मिष्ट संयोगाभावात् ।।८८।। सूत्रार्थ--इस जीवमें दुःख है क्योंकि इष्ट संयोगका अभाव है। दुःखके विरुद्ध सुख होता है और उसका कारण अभीष्ट पदार्थका संयोग है उस संयोगका अभाव होनेसे दुःखका अस्तित्व जाना जाता है। विरुद्धस्वभावानुपलब्धि हेतुका उदाहरण-- अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तानुपलब्धेः ।।८।। सूत्रार्थ--वस्तु अनेकान्तात्मक होती है क्योंकि एकांतकी अनुपलब्धि है। अनेकांतके विरुद्ध नित्यएकांत या क्षणिक एकांत होता है उसकी अनुपलब्धि प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा सिद्ध होती है क्योंकि एकांतको ग्रहण करनेवाले प्रमाणका अभाव है। प्रमाणके विषयका विचार करते समय आगे निश्चय करेंगे कि प्रत्यक्षादि प्रमाण नित्यकांत आदि एकांतको ग्रहण नहीं करते । शंका--जो साध्य साक्षात् विधिरूप या निषेधरूप है उसमें उक्त प्रकारके हेतुकी संख्या मानना ठीक है किन्तु जो परंपरारूपसे विधि या निषेधका साधक है ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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