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________________ २६० प्रमेयकमलमार्तण्डे अपि तु परमप्रकर्षत्वाद् दृष्टान्ते दृष्टसाध्यव्याप्तिकात् । न चात्र केनचिद्वयभिचारः; स्त्रीसम्बन्धिनः कस्यचित्परमप्रकर्षस्यासम्भवात् । मायापरमप्रकर्षास्तीति चेत्; न; स्त्रीणां मायाबाहुल्यमात्रस्यैवागमे प्रसिद्ध : । अन्यथा पुवत्सप्तमपृथिवीगमनानुषङ्गः। 'मायापरमप्रकर्षादन्यत्वे सति' इति विशेषणाद्वा न दोषः । तन्न ज्ञानादिपरमप्रकर्षो मोक्षहेतुस्तत्रास्तीत्य सिद्धो हेतुः । न खलु ज्ञानादयो यथा पुरुषे प्रकृष्यमाणाः प्रमाणतः प्रतोयन्ते तथा स्त्रीष्वपि, अन्यथा नपुसके ते तथा स्युः, तथा चास्याप्यपवर्गप्रसङ्गः । संयमस्तु तद्ध तुस्तत्रासम्भाव्य एव; तथाहि-स्त्रीणां संयमो न मोक्षहेतुः नियमद्धिविशेषाहेतुत्वान्यथानुपपत्त: । यत्र हि संयमः सांसारिकलब्धीनामप्पहेतुः तत्रासौ कथं निःशेषकर्म विप्रमोक्ष देखकर इसके द्वारा स्त्रियोंमें मोक्षके हेतु का प्रकर्ष निषिध्य किया जाता है । इस परम प्रकर्षत्वात् हेतुका किसीके साथ व्यभिचार भी नहीं है अर्थात् स्त्रियोंमें किसीका भी परमप्रकर्ष नहीं होता है। स्त्रियोंमें मायाका प्रकर्ष होता हैं अतः हेतु व्यभिचारी है ऐसा भी नहीं कहना, स्त्रियोंमें मायाका बाहुल्य होता है इतना ही आगम वाक्य है, यदि माया का प्रकर्ण स्त्रियोंमें होता तो वह पुरुषके समान सातवें नरकमें जा सकती थीं। यदि किसीका जबरदस्त आग्रह हो कि, नहीं स्त्रियों में तो माया का परमप्रकर्ष होता ही है, तब तो हम “परम प्रकर्षत्वात्' इस हेतुमें “माया परम प्रकर्षादन्यत्वेसति' इतना विशेषण जोड़ देंगे, अर्थात् माया प्रकर्षको छोड़कर अन्य किसी प्रकार का परमप्रकर्ष स्त्रियोंमें नहीं होता है, ऐसा कथन करनेसे अनुमान निर्दोष होता है । इस प्रकार स्त्रियोंमें ज्ञानादि गुणों का परमप्रकर्ष जो कि मोक्ष का हेतु है वह नहीं है यह भली प्रकार निश्चित हुआ, अतः श्वेताम्बरका "अविकल कारणत्वात्" हेतु प्रसिद्ध ही रहा । पुनश्च-ज्ञानादि गुण पुरुषमें जिस प्रकार से प्रकृष्ट होते हुए दिखाई देते हैं उस प्रकारसे स्त्रियोंमें नहीं दिखाई देते, यदि स्त्रियोंमें इन गुणोंकी उत्कृष्टता होती तो नपुसकमें भी होती ? फिर तो स्त्रियोंके समान नपुसक के भी मुक्ति होनेका प्रसंग प्राता है। तथा मोक्ष के कारणों में अन्तर्भूत हुमा जो संयम है उसका स्त्रियोंमें होना असम्भव है, अब इसीको बताते हैं-स्त्रियों का संयम मोक्ष का हेतु नहीं है, क्योंकि स्त्रियोंमें नियमसे ऋद्धि विशेषके अहेतृत्वकी अन्यथानुपपत्ति है, अर्थात् ऋद्धिके कारणभूत संयम भी स्त्रियों के नहीं है तो मोक्षका कारणभूत संयम कैसे हो सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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