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________________ २०४ ... प्रमेयकमलमार्तण्डे तथा च विरुद्धार्थत्वादुभयोरेकत्रार्थे कथं प्रामाण्यम् ? इत्ययुक्तम्, तत्त्वज्ञानस्य साक्षात्तद्विनाशे व्यापाराभावात् । तद्धि कर्मसामर्थ्यावगमतोऽशेषशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगात्कर्मणां विनाशे व्याप्रियते इत्यग्निरिवोपचर्यते ज्ञानमित्यागमव्याख्यानादविरोधः । न चैतद्वाच्यम्- तत्त्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानादितरेषां तूपभोगात्' इति; ज्ञानेन कर्म विनाशे प्रसिद्धोदाहरणाभावात्, फलोपभोगात्तु तत्प्रक्षये तत्सद्भावात् । अन्ये तु मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य सहकारिणोऽभावाद्विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरे शरीराद्यारम्भकाणीति मन्यन्ते; तेषामनुत्पादितकार्यस्यादृष्टस्याप्रक्षयानित्यत्वसङ्गः । अनागतयोर्धर्माधर्मयोरुत्पत्तिप्रतिषेधे तत्त्वज्ञानिनो नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं किमर्थमिति चेत् ? प्रत्यवायपरिहारार्थम् । इसप्रकार करते हैं कि तत्त्वज्ञानी पुरुष के तो तत्वज्ञान द्वारा कर्मोका नाश होता है और तत्त्वज्ञान रहित पुरुषके फलोपभोग द्वारा कर्मों का नाश होता है, सो यह अर्थ प्रयुक्त है। तत्त्वज्ञान मात्रसे कर्मनाश हो जाता है ऐसा कथन किसी उदाहरण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता, जिससे वह सिद्ध हो । फलोपभोगद्वारा कर्म नाश होनेमें तो आगम तथा दृष्टांत दोनों प्रसिद्ध हैं। .. कोई महानुभाव इसतरह प्रतिपादन करते हैं-मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुए संस्कार जिसमें सहकारी थे उनका जब अभाव हो जाता है तब विद्यमान रहते हए भी वे कर्म अन्य जन्ममें शरीर इन्द्रिय आदिको उत्पन्न नहीं कर पाते हैं। किन्तु यह प्रतिपादन अयुक्त है, यदि कर्म अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते तो उनका नाश होना असंभव होनेसे नित्य ही अवस्थित रह जायेंगे । . शंका-तत्त्वज्ञानियोंके आगमी धर्म अधर्म उत्पन्न नहीं होते हैं तो वे नित्य नैमित्तिक क्रियानुष्ठान किसलिये करते हैं ? समाधान-विघ्न बाधायें उपस्थित न हो एवं दुष्कर्म न हो इस हेतुसे तत्त्वज्ञानी क्रियानुष्ठान किया करते हैं । शंका-तत्त्वज्ञानीके मिथ्याज्ञानका अभाव होनेसे दुष्कर्म भी नहीं है। फिर किसका परिहार करना है ? समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं, तत्त्वज्ञानीके मिथ्याज्ञानके अभाव में मात्र निषिद्ध आवरण निमित्तक प्रत्यवाय नहीं होते किन्तु विहित अनुष्ठान निमित्तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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