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________________ कारक साकल्यवाद-पूर्वपक्ष नैयायिक कारक साकल्य को प्रमाण मानते हैं, प्रमाणों की संख्या उनके यहां चार मानी गई है । १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ उपमान, ४ आगम । इन प्रमाणों को जो उत्पन्न करता है वह कारक साकल्य कहलाता है । पदार्थ को जानना एक कार्य है । और कार्य जो होता है वह अनेक कारणों से निष्पन्न होता है, एक से नहीं। वे जो कारण हैं उन्हें ही कारक साकल्य कहते हैं । "अत्रेदं तावद् विचार्यते किं प्रमाणं नाम किमस्य स्वरूपं किं वा लक्षणमिति, ततः तत्र सूत्रं योजयिष्यते, तदुच्यते-अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् । बोधाबोधस्वभावा हि तस्य स्वरूपं, अव्यभिचारादिविशेषरणार्थोपलब्धिसाधनत्वं लक्षणम्" (न्याय मंजरी पृ० १२) अर्थ:-यहां पर यह विचारारूढ है कि प्रमाण किसका नाम है, क्या उसका स्वरूप और लक्षण है ? सो उसका उत्तर देते हैं-अव्यभिचारी तथा संशय रहित पदार्थ की उपलब्धि होना है ऐसे स्वरूप को जो धारण करती है वह बोध तथा अबोध अर्थात् ज्ञान और अज्ञान लक्षण वाली सामग्री ही प्रमाण कहलाती है, इस सामग्री में ज्ञान को उत्पन्न करने वाले अनेक कारक या कारण हैं । अतः इसको कारक साकल्य कहते हैं, यही प्रमाण है, क्योंकि पदार्थ के जानने में यह साधकतम है । बोध और अबोध तो प्रमाण का स्वरूप है, और अव्यभिचारी तथा संशयरहित पदार्थ की उपलब्धि कराना उसका लक्षण है, यहां पर कोई शंका करे कि प्रमाण शब्द करण साधन है "प्रमीयते अनेनेति प्रमाणं" साधकतम को करण कहते हैं, साधकतम यह शब्द अतिशय को सूचित करता है, अर्थात् "अतिशयेन साधकं साधकतम" जो अतिशयपने से साधक हो उसे साधकतम कहते हैं, सो यहां सामग्री को प्रमाण माना है तो कौन किससे साधक होगा। क्योंकि सामग्री तो एकरूप है। अब इस प्रकार की शंका का समाधान करते हैं- जिस कारण से करणसाधन प्रमाण शब्द है उसी कारण से सामग्री को कारक साकल्य को प्रमाण माना है, क्योंकि अनेक कारकों के होने पर कार्य होता है और नहीं होने पर नहीं होता है, अतः कारकसाकल्य ही प्रमाण है, उन Jain Education International www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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