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________________ ६२४ प्रमेयकमलमार्तण्डे द्भावानाम् । 'य एव यत्र योग्यः स एव तत्करोति' इत्यनन्तरमेव वक्ष्यते । कार्यकारणयोरत्यन्तभेदेऽर्थान्तरत्वाविशेषात् 'सर्वमेकस्मात्कुतो न जायेत' इति, 'रश्मयो वा लोकान्तं कुतो न गच्छन्ति' इति चोद्य भवतोपि योग्यतैव शरणम् । किञ्च, चक्षू रूपं प्रकाशयति संयुक्तसमवायसम्बन्धात्, स चास्य गन्धादावपि समान इति तमपि प्रकाशयेत् । तथा चेन्द्रियान्तरवैयर्थ्यम् । योग्यताऽभावात्तप्रकाशने सर्वत्र सैवास्तु, किमन्तर्गडुना सम्बन्धेन ? यदि चायमेकान्तश्चक्षुषा सम्बद्धस्यैव ग्रहणमिति; कथं तर्हि स्फटिकाद्यन्तरितार्थ कि उनमें ऐसी ही योग्यता है दूसरी बात यह है कि संयुक्त समवाय संबंध से चक्षु रूप को प्रकाशित करती है ऐसा नैयायिक कहते हैं सो जैसे चक्षुका रूपके साथ संबंध है वैसे गन्ध आदिके साथ भी है इसलिये चक्षुको गन्धादिका भी प्रकाशन करना चाहिये ? इस तरह चक्षु द्वारा गन्धादि सब विषयोंका प्रकाशन हो जानेपर अन्य इन्द्रियोंको मानना व्यर्थ ही ठहरेगा।। नैयायिक-गंधादिको प्रकाशित करनेकी चक्षु में योग्यता नहीं है, अतः उनका प्रकाशन नहीं कर सकती। जैन-बस ! फिर सर्वत्र उसी योग्यताको ही स्वीकार करना चाहिये, अंतगंडु सदृश [अन्दरका फोड़ा-केन्सरादि] इस सन्निकर्ष संबंधसे क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं । चक्षु पदार्थ का संबंध करके ही ग्रहण करती है ऐसा एकांत माना जाय तो वह स्फटिक, काच आदिसे अंतरित पदार्थका ग्रहण किसप्रकार कर सकेगी ? क्योंकि उस पदार्थ को ग्रहण करने के लिए जाती हुई चक्षुकी किरणोंका स्फटिकादि अवयवी से प्रतिबंध होगा ? नैयायिक-चक्षु किरणों द्वारा स्फटिकादि अवयवीका नाश हो जाता है अर्थात् चक्षु किरणें उन स्फटिकादिको नष्ट करके अंदर जाकर पदार्थका ग्रहण कर लेती हैं अतः प्रतिबंध नहीं होता है । जैन-एसी बात है तो स्फटिकादिसे अंतरित जो पदार्थ था उसको देखते समय स्फटिकादिकी उपलब्धि नहीं होनी चाहिये ? तथा उस स्फटिकादिके ऊपर रखे हए पदार्थ गिर जाने चाहिये ? क्योंकि उनके आधारभूत स्फटिकादि अवयवीका नाश हो चका है ? स्फटिकादि अवयवीके नष्ट होनेपर उसके बिखरे हुए परमाणु तो उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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