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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे न द्रव्यस्य । न खलु देवदत्तं प्रति पश्वादीनामागमनं तद्गुणान्वयव्यतिरेकानुविधायि देवदत्तस्य कार्यम् । ततो 'द्रव्यत्वे सति' इति विशेषणासिद्धिः। किञ्च, सम्बन्धादेरिवाऽतैजसस्यापि द्रव्यरूपकरणस्य कस्यचिद्र पज्ञानजनकत्वं किन्न स्यात्, विपक्षव्यावृत्त : सन्दिग्धत्वादतैजसत्वे रूपज्ञानजनकत्वस्याविरोधात् ? तदेवं तैजसत्वासिद्धतिश्चक्षुषोरश्मिवत्त्वसिद्धिः। अथान्यत: सिद्धानां रश्मीनां ग्राह्यार्थसम्बन्धोनेन साध्यते; न; अन्यतः कुतश्चित्तेषामसिद्ध:, प्रत्यक्षादेस्तत्साधकत्वेन प्राक्प्रतिषिद्धत्वात् । तथा चेदमयुक्तम्-"धतूरकपुष्पवदादौ सूक्ष्माणामप्यन्ते महत्त्वं तद्रश्मीनां महापर्वतादिप्रकाशकत्वान्यथानुपपत्त: ।" [ ] इति; स्वरूपतोऽसिद्धानां विशेषण "द्रव्यत्वे सति" जो दिया है वह असिद्ध होता है [मतलब-तेजोद्रव्य रूप का प्रकाशक नहीं रहा, उसका प्रकाशक तो तेजोद्रव्य का गुण ही रहा] नैयायिक सन्निकर्ष, समवाय आदि को भी ज्ञान का करण मानते हैं, सो सन्निकर्ष समवाय आदि अतैजस है, जैसे ये अतैजस होकर भी रूप प्रकाशन का करण हैं वैसे कोई द्रव्य रूप करण [गोलकादि] अतैजस होकर भी रूपज्ञानका जनक होवे तो इसमें क्या बाधा है ? कुछ भी नहीं। इसप्रकार "तैजसत्वात" हेतुका विपक्षसे व्यावृत्त होना संदेहास्पद है, क्योंकि अतैजस पदार्थ भी रूपज्ञानके जनक होते हुए देखे जाते हैं, अतैजसमें रूपज्ञानजनकत्वका कोई विरोध नहीं है, इस तरह तैजसत्व हेतु संदिग्धासिद्ध होनेके कारण उस हेतु द्वारा चक्ष की किरणें सिद्ध करना अशक्य है। द्वितीयपक्ष – अन्य प्रमाण से सिद्ध हुए चक्षु किरणों में तेजसत्वहेतु द्वारा ग्राह्यार्थ संबंध [ रूपको छूकर जानना ] सिद्ध किया जाता है ऐसा कहना भी अशक्य है, क्योंकि अन्य किसी प्रमाणसे चक्ष किरणें सिद्ध नहीं होती, प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण चक्ष किरणों के प्रसाधक नहीं हो सकते ऐसा हम निश्चित कर आये हैं । चक्ष किरणों का अस्तित्व सिद्ध नहीं होनेके कारण नैयायिकका निम्न लिखित कथन अयुक्त होता है कि "धतूरे के पुष्पके संस्थान के समान चक्ष किरणे शुरुमें सूक्ष्म आकार होकर अंत में विस्तृत हो जाती हैं, क्योंकि महान पर्वत आदि का प्रकाशन अन्यथा हो नहीं सकता था" इत्यादि, सो जब इन चक्ष किरणोंका स्वरूप ही असिद्ध है तब उनके विस्तृत्व आदि धर्मोंका व्यावर्णन करना श्रद्धामात्र है । इसप्रकार किरणरूप चक्षु सिद्ध नहीं है और गोलक चक्ष में प्राप्यकारिता प्रत्यक्षबाधित है सो अब नैयायिक किस चक्ष में प्राप्तार्थप्रकाशकत्व सिद्ध करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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