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________________ ६१२ प्रमेयकमलमार्तण्डे तम् । तथा चाञ्जनादेः प्रत्यक्षत एव प्रसिद्ध: परोपदेशस्य दर्पणादेश्च तदर्थस्योपादानमनर्थकमेव स्यात् । किञ्च, यदि गोलकान्निःसृत्यार्थेनाभिसम्बद्ध्यार्थं ते प्रकाशयन्ति ; तो थं प्रति गच्छता तेजसानां रूपस्पर्शविशेषवतां तेषामुपलम्भः स्यात्, न चैवम्, अतो दृश्यानामनुपलम्भात्तेषामभावः । प्रथादृश्यास्तेऽनुद्भूतरूपस्पर्शवत्त्वात् ; न; अनुभूतरूपस्पर्शस्य तेजोद्रव्यस्याप्रतीतेः । जलहेम्नो सुर हों ऐसी बात प्रतीत नहीं होती, अर्थात् उन्हें प्रकाशित करती ही हैं । उसी तरह गोलक रूप कूपिकामें रखी हुई किरण रूपी दीपिका से जब किरणें निकलती हैं तब वे गोलक के साथ संलग्न हुए काचकामलादि दोष रूप पदार्थ को छूती हैं और उन्हें प्रकाशित करती हैं, ऐसा मानना होगा? फिर तो अांख में लगे हुए अंजन आदि को प्रत्यक्ष से ही प्रतीति हो जावेगी ? अतः अन्य व्यक्तिको पूछने की जरूरत नहीं होगी कि मेरी आंखों में काजल ठीक २ लग गया है क्या ? एवं लगे हुए अंजन आदि को देखने के लिये दर्पण आदि को लेने की क्या आवश्यकता होगी, अर्थात् कुछ नहीं । किन्तु यह सब होता तो है, अत: किरणचक्षुका पदार्थ से संबंध होना मानना युक्तियुक्त नहीं है । किञ्च-यदि वे किरणें गोलकचक्षु से निकलकर और पदार्थ के साथ संबंधित होकर उस पदार्थ को प्रकाशित करती हैं तो फिर उस पदार्थ की तरफ जाती हुई उन भासुररूपवाली और उष्णस्पर्शवाली किरणों की उपलब्धि होनी चाहिये, अर्थात् वे दिखनी चाहिये, किन्तु ऐसा तो होता नहीं है अतः दृश्य होकर भी उनकी उपलब्धि नहीं होने से उन किरणों का अभाव ही है ।। नैयायिक-वे किरणे अदृश्य हैं, क्योंकि इनमें रूप और स्पर्श की अनुभूति है। जैन-यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि जिसका रूप और स्पर्श दोनों ही अनुभूत [अप्रकट] हों ऐसा कोई भी तेजोद्रव्य उपलब्ध नहीं होता है, अर्थात् तेजोद्रव्य हो और वह अनुभूत रूप स्पर्शवाला हो ऐसी बात प्रतीति में नहीं पाती। नैयायिक-गरम जल और पिघले हुए स्वर्ण में क्रमशः भासुररूप और उष्णस्पर्श की अनुभूति तेजोद्रव्य के रहते हुए भी प्रतीत होती है अर्थात् जलमें भासुर रूप अप्रकट है और स्वर्ण में उष्णस्पर्श अप्रकट रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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