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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे यच्च कपालेभ्योऽभावस्यार्थान्तरत्वं विभिन्नकारणप्रभवतयोच्यते; तथाहि-'उपादानघटविनाशो बलवत्पुरुषप्रेरितमुदगराद्यभिघातादवयवक्रियोत्पत्तेरवयव विभागतः संयोगविनाशादेवोत्पद्यते, उपादेयकपालोत्पादस्तु स्वारम्भकावयवकर्मसंयोग विशेषादेवाविर्भवति' इति; तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अस्य विनाशोत्पादकारणप्रक्रियोद्धोषणस्याप्रातीतिकत्वात् । केवलमन्यप्रतारितेन भवता परः प्रतार्यते, तस्मादन्धपरम्परापरित्यागेन बलवत्पुरुषप्रेरितमुद्गरादिव्यापाराद् घटाकारविकलकपालाकारमृद्रव्योत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या प्रलं प्रतीत्यपलापेन। वादीने शंका की तब प्राचार्य ने कार्यकारण का एक बहुत सुन्दर सिद्धांत बताकर उस शंकाका निरसन कर दिया है कि कार्य ही कारणका उपमर्दन करता है, कारण कार्य का उपमर्दन नहीं कर सकता । बीज रूप कारण का उपमर्दन करके अंकुर रूप कार्य उत्पन्न होता है, किन्तु अंकुरका उपमर्दन करके बीज उत्पन्न नहीं होता है, मिट्टी का उपमर्दन कर घट बन जाता है किन्तु घटका उपमर्दन कर मिट्टी नहीं बनती। उपमर्दन का अर्थ है पूर्व स्वरूपको बिगाड़कर तत्काल अन्य स्वरूपको धारण करना। यह दूसरी बात है कि अंकुर बड़ा पौधा हुअा फिर उसमें बाल आकर बीज उत्पन्न हुए किन्तु जैसे तत्काल कारणका उपमर्दन कार्योत्पत्ति होती है वैसे कार्यका उपमर्दन करके तत्काल कारण उत्पन्न नहीं होता है । अत: घट से प्रध्वंसरूप कपाल तो हो जाता है, किन्तु कपाल से घट नहीं बनता है । परवादी के यहां कहा जाता है कि कपालों से भावांतर स्वभाव वाला प्रभाव हुप्रा करता है, क्योंकि वह विभिन्न कारण से उत्पन्न होता है। अब यहां इसी प्रध्वंसादि की प्रक्रिया को बताया जाता है-बलवान पुरुष द्वारा प्रेरित हुए मुद्गरादि के अभिधात से घटके अवयवों में क्रिया ( हलन चलन ) उत्पन्न होती है, उस क्रिया से अवयवोंका विभाजन होता है, उससे संयोगका विनाश होता है और उससे उपादान भूत घटका नाश हो जाता है, इसतरह विनाश अर्थात् प्रध्वंस होने का क्रम है, पुनश्च, स्व आरभक अवयवोंमें क्रिया, क्रियासे संयोग विशेष और उससे उपादेयभूत कपाल का उत्पाद होता है, यह उत्पादका क्रम है। किन्तु यह प्रध्वंसादिका क्रम विना सोचे ही प्रतिपादित किया जाता है, इस प्रक्रियाको सुनकर ऐसा लगता है कि अन्य द्वारा प्रतारित (ठगाये गये) किये आप परको प्रतारित करते रहते हैं ? अर्थात् प्रतीति का अपलाप करके प्रध्वंस और उत्पादके विषय में विपरीत मान्यतायें कर रखी हैं जिससे स्वयं वंचित हुए हैं और दूसरों को भी वंचित कर रहे हैं । अत: इस अंधपरंपरा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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