SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशकीय श्रीमत्सकल ताकिक चूडामणि माणिक्यनंदी प्राचार्य ने परीक्षामुख ग्रथकी सूत्ररूप रचना की थी। यह ग्रंथ यथानाम तथा गुणकी उक्तिको चरितार्थ करता है क्योंकि परीक्ष्यपदार्थोकी परीक्षाका यह मुख्य कारण है, अथवा जिसके द्वारा हेयोपादेयरूप सम्पूर्ण पदार्थों की परीक्षा होती है उस प्रमाणका लक्षण स्वरूप फल आदि को दिखाने के लिये यह ग्रन्थ दर्पण के समान है। ___ इन सूत्रोंपर अनंतवीर्य प्राचार्य ने प्रमेय रत्नमाला नामा संक्षिप्त संस्कृत टीका रची, जिसका हिन्दी अनुवाद जयपुर निवासी पंडितप्रवर जयचंदजी छाबड़ा ने किया था । इसके पश्चात् पंडित हीरालालजी साढूमल निवासीने भी उसका अनुवाद किया, ये दोनों अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं । इसी परीक्षा मुख ग्रन्थपर सुविस्तृत टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड नामा है जो कि प्रमेय रत्नमाला टीकाके पहलेको है, इसका मूल संस्कृत मात्रका प्रकाशन पंडित महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य द्वारा संपादित होकर हुया था किन्तु अभी तक इस विशाल संस्कृत टीकाका हिंदी अनुवाद नहीं हुआ था, इस कारण साधारण स्वाध्यायशील व्यक्ति इसके ज्ञानसे वंचित थे। प्रसन्नता है कि अब इसका अनुवाद प्रायिका जिनमती माताजी ने किया है और उसका प्रकाशन हो रहा है । न्याय विषयक इस ग्रन्थके परिशीलनसे कार्य कारण भाव आदिका सत्य ज्ञान होता है, जिससे वर्तमानके ऐकान्तिक कथनोंका निर्मूलन होता है। प्रस्तुत ग्रन्थका संशोधन पंडित मूलचंद शास्त्री महावीरजीने किया अतः पाप धन्यवादके पात्र हैं। प्रकाशन–इसका प्रकाशन श्री लाला मुसद्दीलाल ट्रस्ट के ट्रस्टी श्री शांतिलालजी जैन कागजी सुपुत्र ब्र • मुसद्दीलालजी जैन फुगाना (मुजफ्फरनगर) निवासी के आर्थिक सहयोगसे हुआ है। श्री शांतिलालजीका व्यवसाय चावड़ी बाजार देहली में है एवं निवास स्थान २/४ दरियागंज देहली में है । आप बहुत स्वाध्याय प्रिय एवं उदारचित्त हैं । बालाश्रम दरियागंजके जिनचैत्यालयका कुशल प्रबन्ध आपके द्वारा ही होता है। परमपूज्य १०८ श्री धर्मसागरजी प्राचार्य महाराजजीके संघका सन् १९७४ का चातुर्मास [पच्चीसवें निर्वाण महोत्सव कालीन] बालाश्रम दरियागंज देहली में हआ था उसकी व्यवस्था व प्रबन्धमें आपका मुख्य सहयोग था। दि० जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनमें प्राप अभिरुचि रखते हैं, ज्ञानोपार्जन एवं धर्म प्रभावना हेतु पाप प्रायः विद्वानोंको नामंत्रित करते रहते हैं अत: आप धन्यवादके पात्र हैं। प्रस्तुत ग्रन्थका मुद्रण करना सरल कार्य नहीं था, श्री पांचूलालजी जैन कमल प्रिन्टर्स मदनगंजने अपने अथक परिश्रमसे इस ग्रन्थका मुद्रण कराया अतः आप धन्यवाद के पात्र हैं। - पं. रतनचंद जैन मुख्तार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy