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________________ शक्तिस्वरूपविचार: कार्योत्पत्तिप्रतीतेः । अनुमानात्तस्य तन्निमित्तत्वसाधने शक्त रप्यत एव सिद्धि रस्तु । तथाहि-यत्कार्यम् तदसाधारणधर्माध्यासितादेव कारणादाविभवति सहकारीतरकारणमात्राद्वा न भवति यथा सुखांकुरादि, कार्य चेदं निखिलमाविर्भाववद्वस्त्विति । एतेनैवातीन्द्रियत्वात्तदभावोऽपास्तः । यदप्युक्तम्-'पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादिकमेव निजा शक्तिः' इत्यादि; तदप्यपेशलम् ; मृत्पिण्डादिभ्योपि पटोत्पत्तिप्रसङ्गात् सहकारीतरशक्त स्तत्राप्य विशेषात् । अथ न पृथिवीत्वादिमात्रो होता है कि शरीर की पुष्टता या निरोगता मात्र कार्य के संपादन करने में निमित्त नहीं है और भी अदृष्ट अतीन्द्रिय वीर्यान्त राय का क्षयोपशम आदि रूप कोई शक्ति है जिसके निमित्त से बाह्य में समानता होते हुए भी कार्य करने में अपनी अपनी क्षमता पृथक् पृथक् होती है । यदि बाह्य में स्त्री माला, चंदन आदि पदार्थ ही सुख के कारण हैं तो उन्हीं नैयायिकों द्वारा माना हुआ अदृष्ट नामा पदार्थ प्रसिद्ध हो जाता है। इसलिये सुखादि कार्यों में तथा पृथिवी अंकुर आदि कार्यों में जैसे अतीन्द्रिय तथा असाधारण कारण पुण्य तथा ईश्वर है उसी प्रकार अग्नि आदि में अतीन्द्रिय शक्ति है, उसके द्वारा जलाना आदि कार्य होते हैं ऐसा सिद्ध हुा । अब शक्ति अतीन्द्रिय होनेसे असत् है क्या ऐसा दूसरा विकल्प जो पूछा था उसके विषयमें प्राचार्य एक ही वाक्य में जबाब देते हैं कि जैसे ग्राहकप्रमाण का अभाव होने से शक्ति का अभाव है, यह पक्ष खण्डित हुअा है वैसे ही अतीन्द्रिय होनेसे शक्ति का अभाव है, ऐसा कहना खण्डित होता है । अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्येक मतवालों में स्वीकार किये ही हैं, आप नैयायिक के यहाँ क्या ईश्वर अदृष्ट आदि अतीन्द्रिय नहीं हैं ? वैसे ही शक्ति अतीन्द्रिय है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । नैयायिक ने कहा था कि पृथिवी आदि में जो प्रथिवीत्व प्रादि हैं वही उसकी अपनी शक्ति है, अर्थात् पृथिवी में जो पृथिवीपना है, जल में जो जलत्व है इत्यादि, सो वही पृथिवी आदि पदार्थों की निज की शक्ति है इत्यादि । सो यह कथन गलत है क्योंकि ऐसी मान्यता में मिट्टीके पिंड आदि से पट की उत्पत्ति होने का प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि सहकारी एवं इतर [ उपादानादि ] कारणोंकी शक्ति वहां मिट्टी आदि में समान रूपसे मौजूद ही है, कोई विशेषता नहीं है। शंका-मात्र पृथिवीत्व प्रादि से युक्त जो पदार्थ हैं, उनका वस्त्र आदि की उत्पत्ति में व्यापार नहीं होता है, जिससे अतिप्रसंग आवे, किन्तु वस्त्र की उत्पत्ति में ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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