SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 586
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शक्तिस्वरूपविचार: मात्र सहकारि; वस्तुनोर्यान्तरस्याभावस्याभावे तद्गतसामान्यस्याप्यसम्भवात् । न चाभावस्य सामान्यं सम्भवति, द्रव्य गुणकर्मान्यतमरूपतानुषङ्गात् । ततः प्रतिबन्धकमण्यादिप्रतिहतशक्तिर्वह्निः स्फोटादिकार्यस्यानुत्पादकस्तद्विपरीतस्तूत्पादक इत्यभ्युपगन्तव्यम् । ततो निराकृतमेतत् 'कार्य स्वोत्पत्तौ प्रतिबंधकाभावोपकृतोभयवाद्यविवादास्पदकारकव्यतिरिक्तानपेक्षम्, तन्मात्रादुत्पत्तावनुपपद्यमानबाधकत्वात्, यत्त यतो व्यतिरिक्तमपेक्षते न तत्तन्मात्रजत्वे. तीनों में रहता है यदि अभाव में सामान्य है तो उसे द्रव्यादिमें से किसी एक रूप मानना पड़ेगा अर्थात् अभाव द्रव्य गुण या कर्म रूप कहलायेगा ? अतः जिस अग्नि की शक्ति प्रतिबंधक मणि आदि के द्वारा प्रतिहत (नष्ट) हुई है वह अग्नि स्फोट दाह प्रादि कार्य को नहीं करती और जो इससे विपरीत अग्नि है वह स्फोटादि कार्यको करती है ऐसा निर्दोष सिद्धांत स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार अग्नि आदि पदार्थों में कार्यों को उत्पन्न करने के संबंधमें अनेक २ शक्तियां हुआ करती हैं ऐसा सिद्ध होता है इसलिये निम्नलिखित अनुमान प्रयोग गलत ठहरता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति में जो कारण प्रतिबन्धकके अभावसे उपकृत है एवं वादी प्रतिवादी द्वारा अविवादरूपसे स्वीकृत है ऐसे कारण को छोड़ कर अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं रखता है, ( पक्ष ) क्योंकि उतने कारण मात्रसे उसकी उत्पत्ति मानने में कोई बाधा नहीं आती। [हेतु] जो कार्य उतने कारण से अतिरित्त अन्य कारणकी अपेक्षा रखता है तो फिर उसकी निष्पत्ति उतने कारणसे होती भी नहीं उसको उतने कारण मात्रसे मानेंगे तो बाधा आयेगी, जैसे वस्त्रको तन्तु मात्र कारणसे उत्पन्न होना माने तो बाधा आती है, किन्तु यह विवक्षित स्फोट आदि जो कार्य है वह वस्त्र कार्यके समान नहीं है अत: उसमें पूर्वोक्त कारणके अतिरिक्त अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं हुआ करती अब यहां यह उपर्युक्त अनुमान क्यों गलत है इस बात का स्पष्टीकरण करते हैं __ इस अनुमान में हेतु असिद्ध है क्योंकि स्फोट आदि जो अग्नि का कार्य परवादी के है वह मात्र प्रतिबंधक के अभाव से नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेमें पहले के कथनानुसार अनेक बाधाये उपस्थित होती हैं । आप नैयायिक ने कहा था कि वस्तु का स्वरूप ही कार्य में सहकारी है और कोई शक्ति आदि नहीं है, क्योंकि उसकी प्रतीति ही नहीं पाती इत्यादि, सो ऐसा मानने पर माला स्त्री अादि प्रत्यक्ष से उपलब्ध हुए कारण कलाप को छोड़कर अन्य अदृष्टको (पुण्य की) प्रतीति नहीं होती अतः उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy